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उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन
यदि देव आदि की प्रेरणा से किसी अलभ्य वस्तु की भी प्राप्ति हो तो उसे प्राप्त करने की मन में कल्पना भी न करे ।' यदि वह राजा है तो उसे यह भी नहीं सोचना चाहिए कि मेरे बाद इस गृह, देश, नगर आदि की रक्षा कैसे होगी ? क्योंकि विगतमोहवाले को कुछ भी कार्य करना शेष नहीं रह जाता है । दीक्षा लेते समय यदि उसके आश्रित प्राणी निराश्रित होकर रोने-चिल्लाने भी लगें तो यह सोचकर कि यह तो मैंने इन लोगों के साथ अच्छा नहीं किया, दीक्षा का विचार नहीं छोड़ना चाहिए, अपितु यह सोचना चाहिए कि जिस प्रकार फलवाले वृक्ष के गिर जाने पर उसके आश्रित जीवों के निराश्रित हो जाने से वृक्ष को दोषी नहीं ठहराया जाता है उसी प्रकार किसी व्यक्ति के दीक्षा ले लेने पर उसके आश्रित जीवों के निराश्रित होकर चिल्लाने से दीक्षा लेनेवाले पर कोई दोष नहीं आता है । आश्रित व्यक्तियों के रोनेचिल्लाने का कारण है उनका अपना स्वार्थ । अतः ग्रन्थ के नमिप्रव्रज्या अध्ययन में राजा नमि के हृदय में दीक्षा के समय उत्पन्न होनेवाले इसी प्रकार के अन्तर्द्वन्द्व को इन्द्रनमिसंवाद के द्वारा समाधान के रूप में उपस्थित किया गया है ।
दीक्षा पलायनवाद नहीं :
साधु धर्म में दीक्षा लेना गृहस्थाश्रम की कठिनाइयों से घबड़ाकर पलायन नहीं है । इसीलिए राजा नमि की दीक्षा के समय जब इन्द्र उनसे यह कहता है कि गृहस्थाश्रम को त्यागकर अन्य आश्रम ( संन्यासाश्रम) की प्रार्थना करने की अपेक्षा उत्तम है कि आप गृहस्थोचित कर्त्तव्यों को करें तो राजा नमि का यह उत्तर कि जो अज्ञानी मास में केवल एक बार कुशाग्रप्रमाण आहार करता है वह भी इस सर्वविरतिरूप सुविख्यात धर्म ( संन्यासाश्रम) की सोलहवी
१. देवाभिओगेण निओइ एणं दिन्नासु रन्ना मणसा न झाया । नरददेविदभिवं दिए जेणामि वंता इसिणा स एसो ||
- उ० १२.२१.
तथा देखिए - ३० १२.२२.
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