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प्रकरण ४ : सामान्य साध्वाचार
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कला को भी प्राप्त नहीं कर सकता है। इससे स्पष्ट है कि दीक्षा लेना गृहस्थाश्रम से पलायन नहीं है । यदि संन्यास लेने पर भी राग-द्वेष की भावना बनी रहती है तो उसे पलायन कहा जा सकता है । अत: जैन साधु के लिए सब प्रकार के ममत्व के साथ अपने शरीर से भी ममत्व न करने को कहा गया है ।
दीक्षागुरु :
दीक्षा लेते समय सामान्यतया दीक्षा देने वाले गुरु की आवश्यकता पड़ती है । साधक जिसके सान्निध्य में दीक्षित होता है वह उसका 'दीक्षागुरु' कहलाता है । 3 यदि ऐसा कोई दीक्षागुरु न मिले तो. समर्थ होने पर वह स्वयं दीक्षा ले सकता है और दीक्षित होकर अन्य लोगों का भी दीक्षागुरु बनकर उन्हें साधुधर्म में दीक्षित कर सकता है । जैसे राजीमती पहले स्वयं दीक्षा लेती है और बाद में अन्य जीवों की दीक्षागुरु बनती है । यहां इतना विशेष है कि ज़ो उम्र में बड़ा होता है वह गुरु नहीं होता है अपितु जो पहले दीक्षा लेता है वही गुरु होता है। जिसकी दीक्षा जितने अधिक समय की होती है वह उतना ही अधिक पूज्य भी होता है ।
१. मासे मासे तु जो बालो कुसग्गेणं तु भुंजए । न सो सुक्खायधम्मस्स कलं अग्घइ सोलसि ।। - उ० ६.४४.
२. जे कहिवि न मुच्छिए स भिक्खू
वोकाया सुइचत्तदेहा |
- उ० १२.४२.
- उ० १५.२.
३. संजओ चइउं रज्जं निक्खंतो जिणसासणे । गद्दभास्सि भगवओ अणगारस्स अंतिए ||
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- उ० १८.१६.
४. सापव्वइया संती पव्वावेसी तहि बहु ।
- उ० १२.३२.
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