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प्रकरण ५ : विशेष साध्वाचार
[ ३७३ ७. सर्प की एकाग्र दृष्टि, ८. प्रज्वलित अग्निशिखा का पान, ६. वायु से थैला भरना तथा १०. तराजू से मेरुपर्वत का तौलना। इस तरह जैसे उपर्यक्त बातें दुष्कर एवं असंभव-सी हैं उसी प्रकार साध्वाचार का पालन करना भी कठिन है। __इस दुष्कर साध्वाचार का पालन करने वाला सच्चा साध भाई-बन्ध, माता-पिता, राजा तथा देवेन्द्र आदि से भी स्तुत्य हो जाता है।' यहाँ तक कि उसका प्रत्येक अंग पूजनीय हो जाता हैं।२ वह सबका नाथ हो जाता है। कठिनता से प्राप्त होने वाली मुक्ति सुलभ हो जाती है क्योंकि दीक्षा का प्रयोजन सांसारिक विषयों की प्राप्ति न होकर मुक्तिरूप परमसूख की प्राप्ति है। इसके अतिरिक्त मुक्ति का साधक साधु पुण्य-क्षेत्रवाला कहलाता है और उसे दिया गया दान भी पुण्य-फलवाला होता है । तपादि के प्रभाव से उन्हें अलौकिक शक्तियों की प्राप्ति हो जाती है। इन अलौकिक शक्तियों के प्रभाव से वे कूपित होने पर सम्पूर्ण लोक को भस्म करने तथा अनुग्रह से इच्छित फल को देने की सामर्थ्यवाले होते हैं। उनके संयम की प्रशंसा में लिखा है कि इनका संयम प्रतिदिन १. देखिए-पृ० २५४, पा० टि० १; उ० २२ २७; ६.५५-६०; १२.
२१; २०.५५-५६; २५.३७, ३५.१८. २. अच्चेमु ते महाभाग न ते किचि न अच्चिमो।
-उ० १२.३४. ३. देखिए-पृ० १९६, पा० टि० २-३. ४. आराहए पुण्णमिणं खु खित्तं ।
-उ० १२.१२. - तहियं गंधोदय पुप्फवासं दिव्वा तहिं वसुहारा य वुट्ठा । पहयाओ दुदुहीओ सुरेहिं आगासे अहो दाणं च घुटं ।।
-उ० १२.३६. ५. महाजसो एस महाणुभावो घोरव्वओ घोरपरक्कमो य । मा एयं हीलेइ अहीलणिज्जं मा सव्वे तेएण मे निदहेज्जा ।।
-उ०१२.२३. जइ इच्छह जीवियं वा धणं वा लोगपि एसो कुविओ डहेज्जा।
-उ० १२.२८.
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