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________________ ३७२ ] उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन त्याग करके आत्मा के शुद्ध स्वरूप का चिन्तन करना इस समाधिमरण का लक्ष्य है। इस तरह साधु का सम्पूर्ण जीवन वीरों की तरह वीरतापूर्वक व्यतीत होता है। इसीलिए ग्रन्थ में साध-धर्म की संग्रामस्थ वीर राजा के कर्त्तव्यों से तुलना की गई है। अतः जिसमें आत्मबल है वही इसका पालन कर सकता है, शेष इसके पालन करने में असमर्थ हैं । इससे सिद्ध है कि यह साधु-धर्म संसार के दु:खों को सहन न कर । सकने के कारण पलायन नहीं है, अपितु एक प्रकार का कषायरूपी शत्रुओं के साथ युद्ध है। कषायरूपी शत्रुओं पर विजय प्राप्त करके कर्मबन्धन को तोड़ना इस तपश्चर्या का प्रयोजन है । जिस प्रकार युद्ध में विजय प्राप्त करने के लिये कठोर परिश्रम करना पड़ता है उसी प्रकार साधु को भी कषायरूपी शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने के लिए आध्यात्मिक तपश्चर्या का आश्रय लेना पड़ता है। प्रायः सभी भारतीय धर्मों में इस तथ्य को स्वीकार किया गया है और तपश्चर्या पर महत्त्व दिया गया है। इस प्रकार ऊपर जो साधु का आचार आदि से अन्त तक बतलाया गया है वह कितना दुष्कर है, प्रत्येक जिज्ञासू समझ सकता है। ग्रन्थ में इसकी कठिनता का प्रतिपादन संवादों के रूप में बहुत्र किया गया है। इसकी दुष्करता का कथन विशेषकर उनके लिए है जो सुकुमार तथा विषयासक्त हैं परन्तु जो सुव्रती, तपस्वी, कर्मठ तथा विषयाभिलाषा से रहित हैं उनके लिए कुछ भी दुष्कर नहीं है ।२ ग्रन्थ में इसकी दुष्करता के कुछ दष्टान्त भी दिए गए हैं। जैसे : १. लौहभार-वहन, २. गंगा का स्रोत अथवा प्रतिस्रोत-निरोध, ३. भुजाओं से समुद्र-सन्तरण, ४. बालू के ग्रास का भक्षण, ५. तलवार की धार पर गमन, ६. लोहे के चनों का चर्वण, १. देखिए- क्षत्रिय का परिचय, प्रकरण ७. २. इह लोए निप्पिवासस्स नत्थि किंचिवि दुक्करं। -उ० १६.४५. ३. गुरुओ लोहमारुत्व..."होइ दुव्वहो । -उ० १६.३६. तथा देखिए-उ० १६.३७-४३. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004252
Book TitleUttaradhyayan Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherSohanlal Jaindharm Pracharak Samiti
Publication Year1970
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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