________________
प्रकरण १ : द्रव्य-विचार
[५६
(क) कर्मभूमि-जहाँ पर मनुष्य कृषि, वाणिज्य, शिल्पकला आदि के द्वारा जीवन-निर्वाह करते हैं अर्थात् जहाँ बिना कर्म किए जीवन-यापन संभव न हो उसे 'कर्मभूमि' कहते हैं। यहाँ का जीव ही सबसे बड़ा पाप-कर्म और सबसे बड़ा पुण्य-कर्म कर सकता है। इसकी सीमा में भरत, ऐरावत तथा महाविदेह (विदेह का वह भाग जो देवु कुरु और उत्तरकुरु क्षेत्र से रहित है) ये तीन क्षेत्र आते हैं। ये तीन क्षेत्र ही ढाई-द्वीपों में १५ क्षेत्रों की संख्या पूर्ण कर लेते हैं। जैसे-जम्बूद्वीप में एक भरत, एक ऐरावत और एक महाविदेह है। धातकीखंड द्वीप में दो भरत, दो ऐरावत और दो महाविदेह हैं। पुष्करार्धद्वीप में दो भरत, दो ऐरावत तथा दो। महाविदेह हैं। इस तरह ढाई-द्वीपों में कर्मभूमि के कुल मिलाकर १५ क्षेत्र हैं।२ आज का विज्ञान जितने भू-खण्ड की खोज कर सका है वह सब कर्मभमि के जम्बूद्वीप स्थित भरतक्षेत्र का बहत छोटा-सा भाग है। इससे इस पूरे मध्यलोक तथा तीनों लोकों के विस्तार का सिर्फ अनुमान लगाया जा सकता है।
(ख) अकर्मभूमि (भोगभूमि)-जहाँ कृषि आदि कर्म किए बिना ही भोगोपभोग की सामग्री उपलब्ध हो जाती है और जीवन-यापन करने के लिए कोई प्रयत्न नहीं करना पड़ता है उसे 'अकर्मभूमि' कहते हैं। यहाँ पर भोगोपभोग की सामग्री इच्छा करने मात्र से उपलब्ध हो जाती है जिससे लोग भोगों में लीन रहते हैं। इसीलिए इसे भोगभूमि' भी कहते हैं। आदिकाल का जो प्राकृतिक-साम्यवाद इतिहास में मिलता है प्रायः उसी तरह का सुविकसित-रूप भोगभूमि के विषय में मिलता है। देवताओं के सुखसदृश यहाँ सुख की ही प्रधानता है। अवशिष्ट (कर्मभूमि के १५ क्षेत्र छोड़कर) ३० क्षेत्रों में भोगभूमियाँ मानी
१. भरतरावतविदेहाः कर्मभूमयोऽन्यत्र देवकुरूत्तरकुरुभ्यः ।
-त० सू० ३.३७. २. बही, तथा उ० ३६.१९६ (आत्माराम-टीका) ३. वही।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org