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________________ प्रास्ताविक : जैन आगमों में उत्तराध्ययन सूत्र [ १३ सूत्र ग्रन्थों के ऊपर महत्त्वपूर्ण प्राचीन टीकाएं उपलब्ध हैं । अतः इन टीकाओं से मूल ग्रन्थ का पार्थक्य बतलाने के लिए ही 'मूलसूत्र' शब्द का प्रयोग हुआ है । परन्तु यह कथन ठीक प्रतीत नहीं होता है क्योंकि केवल टीकाओं से भेद बतलाने के लिए ही मूल शब्द का प्रयोग नहीं है । पिण्डनियुक्ति और ओघनियुक्ति भी तो वास्तव में टीकाएं ही हैं । इसके अतिरिक्त अन्य कई ग्रन्थों पर भी टीकाएं लिखी गई फिर उन्हें क्यों नहीं मूलसूत्र कहा गया ? अनेक टीकाओं का लिखा जाना उनकी प्रसिद्धि, उपयोगिता एवं प्रामाणिकता का परिचायक है । वेबर भी मूलसूत्र शब्द का अर्थ सूत्र से अतिरिक्त कुछ नहीं मानते । ' ३. डा० शुब्रिंग ने प्रारम्भिक साधु जीवन के मूलभूत नियमों के प्रतिपादक होने के कारण इन्हें मूलसूत्र कहा है । 2 प्रो० एच० आर० कापड़िया, डा० नेमिचन्द्र शास्त्री ४, आचार्य तुलसी" आदि विद्वान् कुछ संशोधन के साथ इसी सिद्धान्त के पक्ष में हैं । बहुत कुछ अंशों में यह कथन उचित भी प्रतीत होता है। इन विभिन्न मतों को देखने तथा मूलाचार, मूलाराधना आदि ग्रन्थों में प्रयुक्त 'मूल' शब्द का अर्थ देखने से पता चलता है कि मूल का अर्थ है-बीजरूपता । उत्तराध्ययन आदि १. देखिए - जै० सा० ई० पू० पृ० ७०१. 2. .This designation seems to mean that these four works are intended to serve the Jain monks and nuns in the beginning (मूल) of their career. - दसवेयालिय- सुत्त, भूमिका, पृ० ३ ( उदधृतके० लि० जै०, पृ० ४२). 3. "My personal view is the same as one expressed by Prof. Schubring and mentioned on P. 42. - के०लि० जै०, पृ० ४३. ४. प्राकृत भाषा और साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास, पृ० १९२. ५. द० उ०, भूमिका, पृ० ३. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004252
Book TitleUttaradhyayan Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherSohanlal Jaindharm Pracharak Samiti
Publication Year1970
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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