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________________ उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन मलसत्रों में अंगग्रन्थों में निहित सिद्धान्त एवं आचार का बीजरूप से वर्णन किया गया है जिनका अध्ययन करने पर अन्य सूत्रग्रन्थों को समझना सहज हो जाता है। अतः इनका अध्ययन अन्य ग्रन्थों की अपेक्षा पहले किया जाता था। ये सरल तथा नवदीक्षित साधुओं के लिए प्रारम्भिक अभ्यासावस्था में सिद्धान्त एवं आचार का ज्ञान कराने के लिए उपयोगी हैं। इस तरह मूलसूत्र से तात्पर्य है जो नवदीक्षित साधुओं के लिए प्रारम्भिक अभ्यास की अवस्था में साधुजीवन के मूलभूत आचार एवं सिद्धान्त. का सरल ढंग से स्पष्ट ज्ञान कराएं। यहाँ पर यह ध्यान रखना जरूरी है कि यह 'मूलसूत्र' का विचार अंगबाह्य ग्रन्थों की अपेक्षा से है क्योंकि अंगप्रविष्ट सभी ग्रन्थ गणधर-प्रणीत होने से मूल-ग्रन्थ ही हैं। मूलरूपता एवं प्राचीनता की दृष्टि से अंगबाह्य ग्रंथों में तीन ही मूलसूत्र हैं। अन्य पिण्डनियुक्ति आदि रचनाएँ अपने महत्त्व के कारण मूलसूत्रों में गिनी जाती हैं। उत्तराध्ययन-सूत्र का परिचय : उत्तराध्ययन में ३६ अध्ययन (अध्याय) हैं जिनमें सामान्यरूप से साधु के आचार एवं तत्त्वज्ञान का सरल एवं सुबोध शैली में वर्णन किया गया है। समवायांग सूत्र के ३६वें समवाय में उत्तराध्ययन के जिन ३६ अध्ययनों के नाम मिलते हैं उनसे वर्तमान उत्तराध्ययन के अध्ययन कुछ भिन्न हैं । २ नामों में सामान्य अन्तर परिलक्षित होने पर भी विषय की दष्टि से कोई अन्तर प्रतीत नहीं १. आयारस्स उ उरि, उत्तरज्झयणा उ आसि पुव्वं तु । दसवेयालिय उवरिं, इयाणि किं ते न होंति उ । - व्यवहारभाष्य, उद्देशक ३, गाथा १७६. विशेषश्चायं यथा -- शय्यम्भवं यावदेष क्रमः, तदाऽऽरतस्तु दशवकालिकोत्तरकालं पठ्यन्त इति । - उ० बृहद्वृत्ति, पत्र ५. २. उत्तराध्ययन-नियुक्ति और समवायांग के अनुसार उत्तराध्ययन के नामादि विषयक साम्य-वैषम्य : Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004252
Book TitleUttaradhyayan Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherSohanlal Jaindharm Pracharak Samiti
Publication Year1970
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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