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________________ [ ३८५ प्रकरण ६ : मुक्ति इनकी संख्या इतनी ही निश्चित क्यों की गई है इस विषय में निश्चयपूर्वक कुछ कहा नहीं जा सकता है परन्तु जैनधर्म में १०८ की संख्या धार्मिक क्रियाओं में महत्त्वपूर्ण मानी जाती है । मुक्त जीवों की एकरूपता : मुक्त जीवों में किसी प्रकार का भेद नहीं है क्योंकि सभी सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, सकलकर्मों के बन्धन से रहित, अशरीरी तथा अनुपमेय सुखादि से युक्त हैं, फिर भी ग्रन्थ में मुक्त जीवों के जो अनेक भेदों का उल्लेख किया गया है वह अन्तिम जन्म की उपाधि की अपेक्षा से है । जैसे: पुरुष, स्त्री आदि की पर्याय से मुक्त होने वाले जीव । ' तत्त्वार्थ सूत्र में इस विषय में एक सूत्र है जिसमें बतलाया है कि सिद्धों में किंकृत भेद सम्भव है। वास्तव में सिद्ध जीवों के अशरीरी होने से पुरुष, स्त्री, नपुंसक आदि का भेद नहीं है । जीवन्मुक्ति : ग्रन्थ में जीवन्मुक्ति की सत्ता को स्वीकार किया गया है । जीवन्मुक्ति का अर्थ है - जो अभी पूर्ण मुक्त तो नहीं हुए हैं परन्तु शीघ्र ही नियम से मुक्त होने वाले हैं अर्थात् संसार में रहते हुए भी जिनका संसार भ्रमण रुक गया है और जो सशरीरी अवस्था में ही पूर्ण मुक्ति के द्वार पर खड़े हुए हैं । ग्रन्थ में जीवन्मुक्ति को संसाररूपी समुद्र के तीर ( किनारा) की प्राप्ति तथा पूर्ण मुक्ति (विदेह - मुक्ति को 'पार' ( संसार - समुद्र के उस पार ) की प्राप्ति बतलाया गया है । " विदेहमुक्ति का वर्णन ऊपर किया जा चुका है । अब यहाँ ग्रन्थानुसार जीवन्मुक्ति का वर्णन किया जाएगा । - ग्रन्थ में जीवन्मुक्ति के तथ्य – जब केशिकुमार मुनि गौतम मुनि से पूछते हैं- 'संसार में बहुत से जीव पाशबद्ध दिखलाई देते हैं परन्तु तुम मुक्त पाश एवं लघुभूत होकर कैसे विचरण (विहार) करते हो ? तब गौतम मुनि केशिमुनि से कहते हैं- हे मुने! मैं उन सभी १. देखिए - पृ० ३८३. २. क्षेत्रकाल गतिलिंगतीर्थचारित्रप्रत्येक बुद्धबोधितज्ञानावगाहनान्तरसंख्यात्पबहुत्वतः साध्यः । - त० सू० १०.६. ३. उ० १०.३४; पृ० ३७६, पा० टि० १. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004252
Book TitleUttaradhyayan Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherSohanlal Jaindharm Pracharak Samiti
Publication Year1970
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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