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प्रकरण ४ : सामान्य साध्वाचार
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साधु होकर देवादि के द्वारा भी पूजनीय हो जाता है। इसी प्रकार मृगापुत्र, अनाथी और भृगु-पुरोहित के दोनों पुत्र युवावस्था में तथा भृगु-पुरोहित, उसकी पत्नी, इषुकार राजा और उसकी पत्नी आदि युवावस्था के बाद दीक्षा लेते हैं । अरिष्टनेमी और राजीमती विवाह की मङ्गलबेला में ही संसार से विरक्त होकर दीक्षित हो जाते हैं ।" इसके अतिरिक्त ग्रन्थ में एक समय में मुक्त होनेवाले rai की संख्या गणना के प्रसङ्ग में विभिन्न स्थानों, विभिन्न धर्मावलम्बियों एवं विभिन्न-लिङ्गवालों की पृथक्-पृथक् संख्या गिनाई है । इससे स्पष्ट है कि दीक्षा में स्थान, जाति, लिङ्ग आदि कोई प्रतिबन्धक कारण नहीं है क्योंकि जो मुक्ति प्राप्त करने का अधिकारी हो सकता है वह दीक्षा लेने का अधिकारी क्यों नहीं हो सकता है ? अतः ग्रन्थ में जन्मना जातिवाद का खण्डन करके कर्मणा जातिवाद की स्थापना करते हुए लिखा है - 'कर्म से ब्राह्मण, कर्म से क्षत्रिय, कर्म से वैश्य और कर्म से शूद्र होता है । " " यदि ब्राह्मण नीच कार्य करता है तो वह सच्चा-ब्राह्मण नहीं है और साधु सच्चा साधु नहीं है क्योंकि बाह्यशुद्धि की अपेक्षा अन्तरङ्ग की शुद्धि एवं सत्कार्यों से ही व्यक्ति उच्च होता है । अतः सिद्ध है कि सदाचार पालन करने की सामर्थ्य वाला प्रत्येक व्यक्ति जो संसार के विषयों से विरक्त होकर मुक्ति की अभिलाषा रखता है, दीक्षा लेने का अधिकारी है । यह कोई एकान्त नियम नहीं है कि युवावस्था में भोगों को भोगना चाहिए और फिर वृद्धावस्था में दीक्षा लेना चाहिए । ५ यद्यपि यह सत्य है कि युवावस्था में युवकों की चित्तवृत्ति सांसारिक विषय-भोगों की ओर अधिक आकर्षित रहती है जिससे उस अवस्था दीक्षा लेना कठिन होता है परन्तु यह भी सत्य है कि वृद्धावस्था
१. देखिए - परिशिष्ट २.
२. देखिए - प्रकरण ६.
३. कम्मुणा बम्भणो होइ कम्मुणा होइ खत्तिओ ।
सो कम्णा होई सुद्दो हवइ कम्मुणा ||
- उ० २५. ३३.
४. देखिए - पृ० २३८, पा० टि० ३; पृ० २३६, पा० टि० १-३.
५. उ० १४.६, २६; १९.४४; २२.३८.
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