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(७ ) है। इसीलिए प्रस्तुत प्रबन्ध का नाम ‘उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन' रखा गया है। आचार्य तुलसीकृत प्रबन्ध से इस प्रबन्ध का पार्थक्य बतलाने के लिए भी यह नाम रखना उचित समझा गया। ' प्रस्तुत प्रबन्ध के प्रास्ताविक में जैन आगम-साहित्य में उतराध्ययन का स्थान, विषय-परिचय, रचनाकाल, नामकरण का कारण, भाषा-शैली, महत्त्व तथा टीका-साहित्य के साथ विविध संस्करणों की सूची दी गई है। इसके बाद प्रथम प्रकरण में विश्व की भौगोलिक रचना, सृष्टि तत्त्व और द्रव्य के स्वरूप का निरूपण किया गया है। द्वितीय प्रकरण में संसार की दुःखरूपता और उसके कारणों का विचार करते हुए कर्म-सिद्धान्त का वर्णन किया गया है। तृतीय प्रकरण में मुक्ति-मार्ग का वर्णन करते हुए सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप रत्नत्रय का विचार किया गया है। चौथे प्रकरण में ग्रन्थ के मुख्य प्रतिपाद्य विषय साधुओं के सामान्य सदाचार का और पांचवें प्रकरण में साधुओं के विशेष सदाचार ( तप.) का वर्णन किया गया है। छठे प्रकरण में सम्पूर्ण साधना की प्रतिफलरूप 'मुक्ति' का तथा सातवें प्रकरण में समाज और संस्कृति का विवेचन किया गया है। आठवें प्रकरण में ग्रन्थ की उपयोगिता का वर्णन करते हए सम्पूर्ण प्रबन्ध का परिशीलनात्मक सिंहावलोकन किया गया है।
चार परिशिष्टों में से प्रथम परिशिष्ट में कथा-संवाद दिए गए हैं। द्वितीय परिशिष्ट में ग्रन्थोल्लिखित राजा आदि महापुरुषों .. का परिचय दिया गया है। तृतीय परिशिष्ट में साध्वाचार
सम्बन्धी कुछ अवशिष्ट तथ्यों को दर्शाया गया है। चतुर्थ परिशिष्ट में ग्रन्थोल्लिखित देशों व नगरों का परिचय दिया गया है।
इस तरह सम्पूर्ण प्रबन्ध को मूलग्रन्थ का अनुसरण करते हुए सुव्यवस्थित ढंग से प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया गया है। प्रस्तुत प्रबन्ध यद्यपि २० मार्च, १९६७ को पूर्ण हो चुका था परन्तु पीएच० डी० की उपाधि मिलने तथा प्रकाशन-कार्य में तीन वर्ष का
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