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________________ प्राक्कथन एम० ए० परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद मेरी उत्कट अभिलाषा शोधकार्य की ओर देखकर परम पूज्य डा. सिद्धेश्वर भट्टाचार्य, अध्यक्ष, संस्कृत-पालि विभाग ( काशी विश्वविद्यालय ), ने मुझे जैन आगम-साहित्य के सुप्रसिद्ध ग्रन्थ उत्तराध्ययन-सूत्र पर शोध.. कार्य करने का सुझाव दिया तथा अपने निर्देशन में अनुमति भी दी। ग्रन्थ का अध्ययन करने के बाद मैंने अनुभव किया कि इस ग्रन्थ पर अन्य जैन आगम-ग्रन्थों की अपेक्षा विपुल व्याख्यात्मक साहित्य मौजूद होने पर भी इसका वैज्ञानिक एवं समालोचनात्मक अध्ययन बहुत ही आवश्यक और समयोपयोगी है। यद्यपि शान्टियर, याकोबी, विन्टरनित्स आदि पाश्चात्य विद्वानों ने इसके साहित्यिक, धार्मिक, दार्शनिक आदि पहलुओं के महत्त्व की ओर संकेत किया परन्तु ग्रन्थ के अन्तरङ्ग विषय का सर्वाङ्गीण समालोचनात्मक अध्ययन प्रस्तुत नहीं किया। मेरे शोधकार्य के पूर्ण हो जाने के एक वर्ष बाद आचार्य तुलसीकृत 'उत्तराध्ययन-सूत्र: एक समीक्षात्मक अध्ययन' प्रकाशित हुआ। देखने पर ज्ञात हुआ कि तुलसीकृत प्रबन्ध से प्रस्तुत प्रबन्ध सर्वथा भिन्न प्रकार का है। प्रस्तुत प्रबन्ध में मूल ग्रन्थ के विषय को सरल व सुबोध शैली में प्रस्तुत किया गया है जबकि आचार्य तुलसीकृत प्रबन्ध में मूल व टीका-ग्रन्थों आदि का मिश्रण हो जाने से उत्तराध्ययन का मूल विषय गौण हो गया है। इस कारण प्रस्तुत प्रबन्ध के प्रकाशन की आवश्यकता पूर्ववत् ही बनी रही। प्रस्तुत प्रबन्ध में प्रास्ताविक और आठ प्रकरणों के अतिरिक्त चार परिशिष्ट हैं। प्रबन्ध के अन्त में सहायक ग्रन्थ-सूची, अनुक्रमणिका, तालिकाएँ एवं वृत्तचित्र दिए गए हैं। प्रत्येक प्रकरण के अन्त में समालोचनात्मक अनुशीलन दिया गया है। अन्तिम प्रकरण में समस्त प्रबन्ध का परिशीलनात्मक उपसंहार प्रस्तुत किया गया Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004252
Book TitleUttaradhyayan Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherSohanlal Jaindharm Pracharak Samiti
Publication Year1970
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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