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________________ प्रकरण १ : द्रव्य- विचार [ ee जीव चूंकि किसी से रुकावट को प्राप्त नहीं होते हैं अतः सर्वलोक में व्याप्त हैं । इनका गमन सिद्धों के निवास स्थान तक संभव है । इसीलिए प्रारम्भ में जो लोक का विभाजन किया गया है वह जीवों के निवास के आधार पर नहीं किया गया है । बादर- कायिक जीव चूंकि अवरोध को प्राप्त होते हैं अतः उनका निवास लोक के एक देश में माना गया है । इन एकेन्द्रिय स्थावर जीवों की सन्तान - परम्परा अनादि काल से वर्तमान है तथा अनन्त काल तक रहेगी । परन्तु जब हम किसी जीव विशेष की अवस्था विशेष की अपेक्षा से विचार करते हैं तो उसका प्रारम्भ भी है और अन्त भी है । इन सभी एकेन्द्रिय स्थावर जीवों की आयु ( भवस्थिति ) कम से कम अन्तर्मुहूर्त ( एक अत्यन्त सूक्ष्म क्षण से लेकर ४८ मिनट तक ) तथा अधिक से अधिक पृथिवी - Safe की २२ हजार वर्ष, अप्कायिक की ७ हजार वर्ष, वनस्पतिकायिक की १० हजार वर्ष, अग्निकायिक की तीन दिन-रात ( अहोरात्र ) और वायुकायिक की ३ हजार वर्ष है । इस आयु के पूर्ण होने के बाद ये जीव नियम से एक शरीर छोड़कर दूसरा शरीर धारण कर लेते हैं । यदि एक पृथिवीकायिक जीव मरकर पुन: पुन: ( बारम्बार ) पृथिवीकायिक जीव ही बनता है तो उसे कायस्थिति कहेंगे । यह कायस्थिति सभी एकेन्द्रिय स्थावर जीवों की कम से कम अन्तर्मुहूर्त तथा अधिक से अधिक वनस्पतिकायिक को छोड़कर शेष की असंख्यातकाल ( संख्यातीत वर्ष ) है । वनस्पतिकायिक की अधिकतम कार्यस्थिति अनंतकाल ९. वही । २. संतई पप्प णाईया अपज्जवसियावि य । ठि पहुच्च साईया सपज्जवसियाविय ॥ -उ० ३६.७९,८७,१०१,११२,१२१. ३. बावीससहस्साइं वासाणुक्कोसिया भवे । आठ पुढवणं अंतोमुहुत्तं जहन्निया ॥ उ० ३६.८०. अकायिक आदि के लिए देखिए - उ० ३६.८८, १०२, ११३,१२२. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004252
Book TitleUttaradhyayan Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherSohanlal Jaindharm Pracharak Samiti
Publication Year1970
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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