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________________ १०० ] उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन बतलाई गई है ।' यदि कोई पृथिवीकाय का जीव मरकर किसी अन्य काय वाला जीव बन जाता है और उसके बाद कालान्तर में पुनः पृथ्वी - कायिक जीव बनता है तो उस व्यवधान - काल को स्वकाय-अन्तर या अन्तर्मान कहेंगे । इस प्रकार का अन्तर्मान कम से कम अन्तर्मुहूर्त है तथा अधिक से अधिक अनंतकाल ( सीमातीत ) है परन्तु वनस्पतिकाय का अधिकतम काल असंख्यात - काल है । इस तरह इन एकेन्द्रिय स्थावर जीवों में जीवत्व स्वीकार करने के ही कारण जैन साधु को पृथिवी आदि पर मल-मूत्रादि का त्याग करते समय सावधानी वर्तने को कहा गया है। 3 पृथिवी आदि में जीवत्व स्वीकार कर लेने पर पुद्गल द्रव्य का अभाव नहीं होता है क्योंकि पृथिवी आदि की काया वाले जीवों का शरीर तो १. असंखकालमुक्कोंसा अंतोमुहुत्तं जहन्निया । काठ पुढवीणं तं कायं तु अमुचओ || -३० ३६.८१. अनंतकालमुक्कीसा अंतोमुहुत्तं जहन्निया । कायठिई पणगाणं तं कार्यं तु अमंचओ || - उ० ३६.१०३. तथा देखिए - उ० १०.५, ६. अप, तेज और वायुकायिक के लिए देखिए उ० ३६.८९,११४,४२३; १०.६-८. २. अनंतकालमुक्कसं अंतोमुहुत्तं जहन्नयं । विजमि सकाए पुढवीजीवाण अंतरं ।। - उ० ३६.८२. असंखकाक्कोसं अंतोमुहुत्तं जहन्नयं । विजढम्म सए का पणगजीवाण अंतरं || Jain Education International - उ० ३६ १०४. अप, तेज और वायुकायिक के लिए देखिए - उ० ३६.६०,११५,१२४. ३. देखिए - प्रकरण ४, उच्चारसमिति । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004252
Book TitleUttaradhyayan Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherSohanlal Jaindharm Pracharak Samiti
Publication Year1970
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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