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प्रकरण ८ : उपसंहार
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हैं क्योंकि इसमें साधुओं के आचार-विचार आदि का मुख्यरूप से उपदेशात्मक व आज्ञात्मक शैली में प्रतिपादन होने तथा बहुत्र विषय की पुनरावृत्ति होने पर भी साहित्यिक गुणों का अभाव नहीं हुआ है। यद्यपि कुछ अध्ययन अवश्य शुद्ध दार्शनिक सिद्धान्तों का प्रतिपादन करने के कारण नीरस प्रतीत होते हैं परन्तु अन्यत्र उपमा, दृष्टान्त, रूपक आदि अलंकारों तथा सुभाषितों से मिश्रित कथात्मक व संवादात्मक सरस शैली का प्रयोग किया गया है जिससे कहीं-कहीं इसके साहित्यिक गुणों का उत्कर्ष भी हुआ है। इसके अध्ययनों को विषय-शैली की दृष्टि से तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है। जैसे : १. शुद्ध दार्शनिक सिद्धान्तों के प्रतिपादक अध्ययन, २. नीति एवं उपदेश-प्रधान अध्ययन और ३. आख्यानात्मक अध्ययन । यह विभाजन प्रधानता की दृष्टि से ही संभव है क्योंकि प्रायः सर्वत्र सैद्धान्तिक चर्चा की गई है। __कर्मणा जातिवाद की स्थापना, बाह्यशुद्धि की अपेक्षा आभ्यन्तरशुद्धि की प्रधानता, देश-काल के अनुरूप धार्मिक नियमों में परिवर्तन, ज्ञान की प्राप्ति के लिए विनम्रता, यज्ञ की आध्यात्मिक व्याख्या, व्यक्ति का पूर्ण स्वातन्त्र्य व परमात्मा बनने की क्षमता, देवों की अपेक्षा मनुष्यजन्म की श्रेष्ठता, सुख-दुःख की प्राप्ति में व्यक्ति के द्वारा स्वतः किए गए भले-बुरे कर्मों की कारणता, वशीकृत आत्मा के द्वारा अवशीकृत आत्मा पर विजय प्राप्त करने का आध्यात्मिक संग्राम, गुरु शिष्य के आपस के सम्बन्ध, हर मुसीबत का अडिगतापूर्वक मुकाबला, ब्राह्मण का आदर्श स्वरूप,
अहिंसा-सत्य-अचौर्य-ब्रह्मचर्य-अपरिग्रह इन पाँच नैतिक नियमों की · · 'सूक्ष्म व्याख्या, संसार की अनादिता के साथ संसार के विषय-भोगों की असा रता, वीतरागता का उपदेश, विश्वबन्धुत्व की भावना, चेतन व अचेतन का विश्लेषण, पुनर्जन्म, स्त्री-मुक्ति व जीवन्मुक्ति में विश्वास, अनादिमुक्त ईश्वर की सत्ता में अविश्वास, जीवन का अन्तिम लक्ष्य-मुक्ति, मुक्ति का स्वरूप और उसकी प्राप्ति आदि प्रकृत ग्रन्थ के विशेष प्रतिपाद्य विषय हैं। इन विषयों के प्रतिपादन में नमि-प्रव्रज्या आदि मार्मिक व आध्यात्मिक संवादात्मक आख्यानों तथा उपमा आदि अलंकारों के प्रयोग से जिस आध्यात्मिक मार्ग
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