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________________ प्रास्ताविक : जैन आगमों में उत्तराध्ययन-सूत्र [ २६ पूर्ण-स्थिति में आ चुका था। दिगम्बर-परम्परा में भी इसका सादर उल्लेख मिलने से स्पष्ट है कि संघभेद होने के पूर्व यह मान्यता प्राप्त कर चुका था। अन्यथा इसका वहाँ उल्लेख न मिलता। किंच, दशवैकालिक की रचना में उत्तराध्ययन के अंशों का आधार होने से तथा दशवकालिक की रचना हो जाने पर उत्तराध्ययन का दशवैकालिक के बाद पढ़े जाने का उल्लेख होने से' दशवैकालिक की रचना के पूर्व इसकी रचना होनी चाहिए। दशवैकालिक के कर्ता शय्यंभवसूरि का काल महावीर-निर्वाण के ७५ वर्ष बाद माना जाता है। उत्तराध्ययन की अन्तिम गाथा तथा अन्यत्र भी उल्लिखित इसी प्रकार के प्रमाणों से प्रतीत होता है कि इसके उपदेष्टा साक्षात् महावीर हैं जिन्होंने अपने निर्वाण-प्राप्ति के अन्तिम समय में बिना पूछे प्रश्नों के उत्तर के रूप में उपदेश दिया था और इसके बाद परिनिर्वाण को प्राप्त हो गये थे। संभवतः इसीलिए शान्टियर उत्तराध्ययन की भूमिका में इसे महावीर के वचन स्वीकार करते हैं । · ईस तरह उत्तराध्ययन की प्राचीनता महावीर के निर्वाणकाल तक पहुँच जाती है। परन्तु इसके विपरीत भी उल्लेख मिलते हैं। जैसे-समवायांग-सूत्र के ५५वें समवाय में ५५ पुण्यफलविपाक और ५५ पापफलविपाक के अध्ययनों का कथन करने के उपरान्त १. देखिए-पृ० १४, पा० टि० १. २. देखिए-पृ०१२, पा० टि० १. ३. षट्त्रिंशत्तमाप्रश्नव्याकरणान्यभिधाय च । प्रधानं नामाध्ययनं जगद्गुरूरभावयत् ॥ -त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, १०. १३. २२४. तेणं कालेणं......पणपन्नं अज्झयणाई कल्लाण फलविवागाइं पणपन्नं अज्झयणाई पावफलविवागाइं छत्तीसं अपुढवागरणाइं वागरित्ता पहाणं नाम अज्झयणं...परिनिव्वुडे सव्वदुक्खपहीणे -कल्पसूत्र, ११ वी वाचना। .... उत्तराध्ययनं वीरनिर्वाणगमनं तथा -हरिवंशपुराण, १०. १३४. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004252
Book TitleUttaradhyayan Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherSohanlal Jaindharm Pracharak Samiti
Publication Year1970
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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