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प्रकरण ५ : विशेष साध्वाचार
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कुचलना तथा पतंगसेना द्वारा आग में कूदकर आग को बुझाना । '
४. रस- परित्याग तप :
दूध, दही, घी आदि सरस पदार्थों के सेवन का त्याग करना रसपरित्याग तप है | सामान्यतया साधु के लिए नीरस आहार करने का ही विधान है और यदि उसे सरस आहार मिल जाता है तो वह उसे भी ले सकता है । परन्तु रस- परित्याग तप को करने - वाला साधु रसना इन्द्रिय को मधुर लगनेवाले दूध, दही, घी आदि तथा उनसे बने सरस भोजनादि को मिलने पर भी नहीं खा सकता है । इस तरह इस तप के करने से साधु की इन्द्रियाग्नि उद्दीपित नहीं होती है और ब्रह्मचर्यव्रत का पालन करने में सहायता मिलती है | साधु के लिए आहार संयम का पालन करने के लिए है, शरीर की पुष्टि एवं रसास्वाद के लिए नहीं । अतः इस तप को करना भी आवश्यक हो जाता है ।
५. कायक्लेश तप :
सुखावह वीरासन आदि ( पद्मासन, उत्कटासन आदि ) में शरीर को स्थित करना कायक्लेश तप है । 3 कायक्लेश तप के इस लक्षण में 'जीव को सुख की ओर ले जानेवाला ' ( सुखावह) ऐसा विशेषण देने से उन सभी कुत्सित तपों का
१. गिरि नहिं खणह अयं दंतेहि खायह ।
जायतेयं पाएहि हणह जे भिक्खु अवमन्नह ||
- उ० १२.२६.
तथा देखिए - उ० १२.२७. २. खीर दहिसप्पमाई पाणीयं पाणभोयणं । परिवज्जणं रसाणं तु भणियं रसविवज्जणं ॥
-उ० ३०.२६.
३. ठाणा वीरासणाईया जीवस्स उ सुहावहा । उगा जहा धरिति कायकिलेसं तमाहियं ॥
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- उ० ३०.२७.
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