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________________ प्रकरण ५ : विशेष साध्वाचार [ ३३९ कुचलना तथा पतंगसेना द्वारा आग में कूदकर आग को बुझाना । ' ४. रस- परित्याग तप : दूध, दही, घी आदि सरस पदार्थों के सेवन का त्याग करना रसपरित्याग तप है | सामान्यतया साधु के लिए नीरस आहार करने का ही विधान है और यदि उसे सरस आहार मिल जाता है तो वह उसे भी ले सकता है । परन्तु रस- परित्याग तप को करने - वाला साधु रसना इन्द्रिय को मधुर लगनेवाले दूध, दही, घी आदि तथा उनसे बने सरस भोजनादि को मिलने पर भी नहीं खा सकता है । इस तरह इस तप के करने से साधु की इन्द्रियाग्नि उद्दीपित नहीं होती है और ब्रह्मचर्यव्रत का पालन करने में सहायता मिलती है | साधु के लिए आहार संयम का पालन करने के लिए है, शरीर की पुष्टि एवं रसास्वाद के लिए नहीं । अतः इस तप को करना भी आवश्यक हो जाता है । ५. कायक्लेश तप : सुखावह वीरासन आदि ( पद्मासन, उत्कटासन आदि ) में शरीर को स्थित करना कायक्लेश तप है । 3 कायक्लेश तप के इस लक्षण में 'जीव को सुख की ओर ले जानेवाला ' ( सुखावह) ऐसा विशेषण देने से उन सभी कुत्सित तपों का १. गिरि नहिं खणह अयं दंतेहि खायह । जायतेयं पाएहि हणह जे भिक्खु अवमन्नह || - उ० १२.२६. तथा देखिए - उ० १२.२७. २. खीर दहिसप्पमाई पाणीयं पाणभोयणं । परिवज्जणं रसाणं तु भणियं रसविवज्जणं ॥ -उ० ३०.२६. ३. ठाणा वीरासणाईया जीवस्स उ सुहावहा । उगा जहा धरिति कायकिलेसं तमाहियं ॥ Jain Education International - उ० ३०.२७. For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004252
Book TitleUttaradhyayan Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherSohanlal Jaindharm Pracharak Samiti
Publication Year1970
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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