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________________ १६० ] उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन सात या नव भेदों का ग्रन्थ में उल्लेख मिलता है । इनके नाम ये हैं: हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा ( घृणा ) और वेद ( स्त्री, पुरुष और नपुंसक लिङ्ग) | स्त्रीविषयक मानसिक विकार, पुरुषविषयक मानसिक विकार तथा उभयविषयक मानसिक विकार के भेद से वेद के तीन भेद करने पर नोकषाय के ६ भेद हो जाते हैं ।' ५. आयु कर्म - जिस कर्म के प्रभाव से जीव के जीवन की (आयु की) अवधि निश्चित होती है उसे आयुकर्म कहते हैं । चार गतियों के आधार से इसके भी चार भेद किए गए हैं: २ १. नरकायु, २. तिर्यञ्चायु, ३. मनुष्यायु और ४. देवायु । ग्रन्थ में सूत्रार्थ - चिन्तन का फल बतलाते हुए लिखा है कि सूत्रार्थ - चिन्तन से जीव आयु कर्म को छोड़कर शेष सात कर्मों के प्रगाढ़ बन्धन को शिथिल कर देता है । इसके अतिरिक्त यदि आयुकर्म का बन्ध करता है तो विकल्प से करता है । 3 इससे स्पष्ट है कि आयुकर्म शेष सात कर्मों से कुछ भिन्नता रखता है । कर्म - सिद्धान्त प्रतिपादक ग्रन्थों तथा उत्तराध्ययन के टीका- ग्रन्थों आदि के देखने से पता चलता है कि आयुकर्म का जीवन में सिर्फ एक बार बन्ध होता है जबकि अन्य कर्मों का बन्ध हमेशा होता रहता है ।४ १. सोलसविहभेएणं कम्मं तु कसायजं । सत्तविहं नवविहं वा कम्मं नोकसायजं ॥ कोहं च माणं च तव मायं लोहं दुगुछं अरई रहूं च । हासं भयं सोगपुमित्थवेयं नपुंसवेयं विविहे य भावे ।। - उ० ३२. १०२. २. उ० ३३.१२. ३. अणुप्पेहाएणं आउयवज्जाओ सत्तकम्मप्पगडीओ सिढिबंधणबद्धाओ करेइ आउयं च णं कम्मं नो बंधइ । - उ० ३३.११. Jain Education International - उ० २६.२२. ४. आयु कर्म का बन्ध सम्पूर्ण आयु का तृतीय भाग शेष रहने पर होता है । जैसे किसी जीव की आयु ६६ वर्ष की है तो वह ३३ वर्ष की आयु के शेष रहने पर ही अगले भव के आयु-कर्म का बन्ध करेगा । यदि उस समय आयु- कर्म के बन्ध का निमित्त नहीं मिलेगा तो वह For Personal & Private Use Only घणियबंधणबद्धाओ सिया बंधइ, सिया www.jainelibrary.org
SR No.004252
Book TitleUttaradhyayan Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherSohanlal Jaindharm Pracharak Samiti
Publication Year1970
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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