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प्रकरण २ : संसार
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६. नाम कर्म-जो शरीर, इन्द्रिय आदि की सम्यक् या असम्यक रचना का हेतु है उसे नाम-कर्म कहते हैं। इसके शुभ और अशुभ के भेद से प्रथमतः दो भेद किए गए हैं। इसके बाद प्रत्येक के अनेक भेदों का संकेत किया गया है।'
७. गोत्र कम-जिस कर्म के प्रभाव से उच्च अथवा निम्न जाति, कुल आदि की प्राप्ति हो उसे गोत्रकर्म कहते हैं। इसके उच्च और निम्न ये दो भेद किए गए हैं। इसके बाद प्रत्येक के आठ-आठ भेदों का संकेत किया गया है । २
८. अन्तराय कर्म-जिस कर्म के प्रभाव से सभी कारणों के अनुकूल मौजूद रहने पर भी कार्य सिद्धि नहीं होती उसे अन्तरायकर्म कहते हैं । इसके ५ भेद बतलाए गए हैं3-दान, लाभ, भोग
जीव अवशिष्ट आयु के विभाग में (अर्थात ११ वर्ष शेष रहने पर) आयु-कर्म का बन्ध करेगा। इस समय पुनः आयु-कर्म के बन्ध का निमित्त न मिलने पर वह जीव अवशिष्ट आयु के त्रिभाग (३३ वर्ष) शेष रहने पर आयु-कर्म का बन्ध करेगा। इस तरह आयु-कर्म के बन्ध का निमित्त न मिलने पर यह क्रम आयु के अन्तिम क्षण तक चलता रहेगा। विष भक्षण आदि से अकाल-मृत्यु होने पर जीव उपर्यक्त नियम का उल्लंघन करके तत्क्षण ही आयु कर्म का बन्ध कर लेता है । सामान्य अवस्था में उपर्युक्त क्रमानुसार ही आयुकर्म का बन्ध होता है। इतना अवश्य है कि आयु-कर्म का बन्ध जीवन में सिर्फ एक बार होता है। आयु-कर्म का बन्ध होने पर जीवन की आयु-सीमा घट-बढ़ सकती है परन्तु नरकादि चतुर्विधरूप से जो आयु-कर्म का बन्ध हो जाता है वह बहु-प्रयत्न करने पर भी नहीं टलता है।
-देखिए-३० आ० टी०, पृ० १२८४.. १. उ० ३३.१३... ... ...... ... १. गोयं कम्मं दुविहं उच्चं नीयं च आहियं ।। ... ...... उच्चं अट्ठविहं होइ एवं नीयं पि. आहियं ।। -
-उ० ३३. १४. गोत्र-कर्म के आठ भेद हैं-जाति, कुल, बल, तप, ऐश्वर्य, श्रुत, लाभ
और रूप । ३. ७० ३३.१५.
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