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१६२ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन (जो वस्तु एक बार भोगी जा सके। जैसे-फलादि), उपभोग (जो वस्तु कई बार उपयोग में लाई जा सके। जैसे-स्त्री, वस्त्र आदि)
और शक्ति। अतः दानादि करने की अभिलाषा आदि के वर्तमान रहने पर भी दानादि न कर सकना अन्तराय कर्म का प्रभाव है।
इस तरह आठ प्रकार के मूल कर्मों का तथा उनके अवान्तर भेदों का ग्रन्थानुसार वर्णन किया गया। दिगम्बर और श्वेताम्बर कर्म-ग्रन्थों में यद्यपि मूल-कर्म के आठ भेदों में कोई अन्तर नहीं है तथापि उनके अवान्तर भेदों के विभाजन और स्वरूप में कुछ अन्तर अवश्य है। इसके अतिरिक्त कर्म-सिद्धान्त प्रतिपादक ग्रन्थों में मूल आठ कर्मों के स्वरूप को समझाने के लिए दृष्टान्त तथा क्रमनिर्धारण के लिए तर्क दिए गए हैं। कर्मों की संख्या, क्षेत्र, स्थिति-काल आदि :
इन बंधने वाले कर्मों के कर्म-परमाणुओं की संख्या संसारी और मुक्त सभी जीवों की संख्या की अपेक्षा अनन्त है । ग्रन्थ में जो कर्मों की संख्या सिद्ध जीवों की अपेक्षा हीन और कभी न मुक्त होने वाले अभव्य जीवों (ग्रन्थिकसत्त्वातीत) की अपेक्षा कई गुणी अधिक बतलाई है वह एक समय में बंधने वाले कर्मों की संख्या की अपेक्षा १. देखिए-कर्मप्रकृति, प्रस्तावना, पृ० २३-२५.. २.क. इन कर्मों के स्वरूप के विषय में निम्न दृष्टान्त मिलते हैं-१. देवता के
मुख पर पड़े हुए वस्त्र की तरह ज्ञान का आवरक ज्ञानावरणीय, २. राजद्वार पर स्थित प्रतिहारी की तरह दर्शन का प्रतिबन्धक दर्शनावरणीय, ३. मधुलिप्त असिधारा की तरह सुख-दुःख का वेदक वेदनीय, ४. मदिरापान की तरह हिताहित के विवेक का प्रतिबन्धक मोहनीय, ५. शृङ्खलाबन्धन की तरह जीवन का मापक आयु, ६. चित्रकार की तरह नाना प्रकार से शरीर आदि की रचना का हेतु नाम, ७. कुम्भकार के छोटे-बड़े बर्तनों की तरह उच्च-नीच कुल का प्रापक गोत्र और ८. भण्डारी या कोषाध्यक्ष की तरह दानादि का प्रतिबन्धक अन्तराय ।
देखिए-कर्मप्रकृति, संस्कृत -टीका (१. २१), पृ. १५. ख. आठों कर्मों के क्रम के लिए देखिए-कर्म प्रकृति १. १७-२१.
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