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________________ २३० ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन सम्यक्चारित्र के प्रमुख पाँच प्रकार : चारित्र के विकासक्रम को दृष्टि में रखकर सदाचार को पाँच भागों में विभक्त किया गया है:१ १. अशुभात्मक-प्रवृत्ति को रोककर समताभाव में स्थिर होना (सामायिकचारित्र), २. पहले लिए गए व्रतों को पुनः ग्रहण करना (छेदोपस्थापनाचारित्र), ३. आत्मा की विशेष शुद्धि के लिए तपश्चरण करना (परिहारविशुद्धिचारित्र), ४. संसार के विषयों में अत्यल्प राग रहना (सूक्ष्मसम्परायचारित्र) और ५. पूर्ण वीतरागी होना (यथाख्यातचारित्र) । इनके स्वरूप वगैरह इस प्रकार हैं : १. सामायिकचारित्र-समताभाव में स्थित होने के लिए पापात्मक (हिंसामूलक) प्रवृत्तियों को रोककर अहिंसादि पाँच नैतिक व्रतों का पालन करना । यह सदाचार की प्रथम अवस्था है। सद्गृहस्थ का सदाचार भी इसी कोटि में आता है। सामाजिक सदाचार-परक जितने भी नियम-उपनियम हैं वे सभी इसी चारित्र के अन्तर्गत आते हैं। वास्तव में सामायिकचारित्र का प्रारम्भ साधु-धर्म में दीक्षा लेने के बाद से प्रारम्भ होता है क्योंकि सामायिकचारित्र आदि जो चारित्र के ५ भेद किए गए हैं वे सब साधु के आचार की अपेक्षा से किए गए हैं। अतः साधु बनने के पूर्व का जो भी अहिंसात्मक सदाचार है वह भी सामायिक-चारित्र की पूर्व-पीठिकारूप होने से इसी के अन्तर्गत आता है। २. छेदोपस्थापनाचारित्र-छेद का अर्थ है-भेदन करना या छोड़ना। उपस्थापना का अर्थ है-पुनः ग्रहण करना। अर्थात् सामायिकचारित्र का पालन करते समय लिए गए अहिंसादि पाँच नैतिक व्रतों को पुनः जीवनपर्यन्त के लिए विशेषरूप से ग्रहण करना। जब अहिंसादि नैतिक-व्रतों को जीवन-पर्यन्त के लिए पुनः १. सामाइयत्थ पढम छेदोवठ्ठावणं भवे वीयं । परिहारविसुद्धीयं सुहुमं तह संपरायं च ।। अकसायमहक्खायं छउ मत्थस्स जिणस्स वा। एयं चयरितकरं चारित्तं होइ आहियं ।। -उ० २८.३२-३३.. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004252
Book TitleUttaradhyayan Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherSohanlal Jaindharm Pracharak Samiti
Publication Year1970
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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