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________________ प्रकरण ३ : रत्नत्रय [ २२६ को नीचे से ऊपर उठाकर उच्च सिंहासन पर बैठा देता है और दुराचार उच्च सिंहासन से उठाकर नीचे गर्त में ढकेल देता है। सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान के होने पर भी यदि किसी में सदाचार नहीं है तो उसके सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान कार्यसाधक नहीं हो सकते हैं क्योंकि उनका प्रयोजन सदाचार में प्रवत्ति कराना है। अतः ग्रन्थ में कहा गया है कि पढ़े हुए वेद व्यक्ति की रक्षा नहीं कर सकते हैं।' अब प्रश्न है कि सदाचार क्या है ? यदि सदाचार को सामान्यरूप से एक वाक्य में कहना चाहें तो कह सकते हैं कि दूसरे के साथ हमें वैसा ही व्यवहार करना चाहिए जैसा कि हम दूसरों से स्वयं के प्रति चाहते हैं। इसी सिद्धान्त को दष्टि में रखकर ही सदाचार को ग्रन्थ में अहिंसा के रूप में उपस्थित किया गया है तथा इस अहिंसा के साथ सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह (धन-सम्पत्ति का त्याग) इन चार अन्य आचारपरक नियमों को जोड़ा गया है। इसके अतिरिक्त जितने भी नियम और उपनियम बतलाए गए हैं जिनका आगे वर्णन किया जाएगा, वे सब इन पाँच व्रतों की ही पूर्णता एवं निर्दोषता के लिए हैं। जैसे-जैसे इन व्रतों के पालन से सदाचार में वृद्धि होती जाती है तैसे-तैसे व्यक्ति वीतरागता की ओर बढ़ता जाता है, जैसे-जैसे वीतरागता की ओर अग्रसर होता जाता है तैसे-तैसे पूर्वबद्ध-कर्म भी आत्मा से पृथक् होते जाते हैं और जैसे-जैसे पूर्वबद्ध-कर्म आत्मा से पृथक होते जाते हैं तैसे-तैसे आत्मा निर्मल से निर्मलतर अवस्था को प्राप्त करती हुई मुक्ति को प्राप्त कर लेती है। १. वेया अहीया न हवंति ताणं । -उ० १४.१२. पसुबन्धा सव्वेया जठं च पावकम्मुणा । न तं तायंति दुस्सीलं कम्माणि बलवंति हि। --उ० २५.३०. २. चारित्तमायार गुणन्निए तओ अणुत्तरं संजम पालियाणं । निरासवे संखवियाण कम्म उवेइ ठाणं विउ लुत्तमं धृवं ॥ -उ० २०.५२. तथा देखिए-उ० २८.३३; २६.५८,६१. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004252
Book TitleUttaradhyayan Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherSohanlal Jaindharm Pracharak Samiti
Publication Year1970
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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