________________
प्रकरण १: द्रव्य-विचार
-[७७ लोक का विभाजन सुनियोजित बनाए रखना। प्रेरक कारण न मानकर सहायक कारण मात्र मानने का कारण है पूर्ण व्यक्तिस्वातन्त्रय को कायम रखना तथा द्रव्यों में परस्पर संघर्ष न होना। विश्व में जो हलनचलनरूप क्रिया देखते हैं उन सब में धर्मद्रव्य कार्य करता है और जो हलन-चलन की क्रिया से रहित हैं उन सबमें अधर्मद्रव्य कार्य करता है। दोनों के अचेतन एवं स्वतः निष्क्रिय होने के साथ गति-स्थिति में सहायक कारण मात्र होने से आपस में झगड़े का प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता है। झगड़ा सक्रिय-द्रव्य में ही संभव है, निष्क्रिय में नहीं। यहाँ एक बात और विचारणीय है कि गति और स्थिति में सहायक इन दो द्रव्यों के क्रमशः नाम धर्म और अधर्म क्यों रखे गए जबकि धर्म और अधर्म शब्द का प्रयोग सर्वत्र क्रमशः पुण्यरूप और पापरूप कार्यों के अर्थ में प्रचलित था। इसके अतिरिक्त प्रकृत ग्रन्थ में भी धर्म और अधर्म शब्द का प्रयोग क्रमश: अच्छे और खराब कार्यों के अर्थ में किया गया है। अतः मालूम पड़ता है इसके मूल में धार्मिक भावना कार्य करती है। वह यह कि अधर्म (बुरे कार्य) करनेवाला संसार में पड़ा रहता है और धर्म (शुभ कार्य) करनेवाला स्वर्ग या मुक्ति के लिए ऊपर गमन करता है। इसीलिए धर्मको गति का और अधर्म को (संसार में स्थित रहने से) स्थिति का सहायक कारण मानकर उनके नाम क्रमश : गति और स्थिति न रखकर धर्म और अधर्म नाम रखे गए हैं।
३ आकाशद्रव्य - द्रव्यों के ठहरने के लिए स्थान (अवकाश) देना आकाश का कार्य है। यह सभी द्रव्यों का आधारभूत भाजन (पात्र-विशेष) है ।२ चेतन और अचेतन द्रव्यों के ठहरने के लिए किसी आधार विशेष की कल्पना आवश्यक थी क्योंकि विना आधार के ये द्रव्य कहाँ ठहरते ? इसके लिए जिस द्रव्य की कल्पना की गई उसका नाम है-आकाश । आकाश कोई ठोस द्रव्य नहीं है अपितु खाली स्थान ही आकाश है। जहाँ हम उठते ... १. उ० २०. ३८; ७.१४-२१. २. भायणं सव्वदव्वाणं नहं ओगाहलक खणं ।।
-उ० २८.६.
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org