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उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन प्रमाण माना है।' इन धर्मादि अरूपी अचेतन द्रव्यों का स्वरूप इस प्रकार है :
१. धर्मद्रव्य-यहाँ पर धर्मद्रव्य से तात्पर्य पूण्य से नहीं है अपितु गति में सहायता देने वाले द्रव्य-विशेष से है। अतः ग्रन्थ में गति को धर्म का लक्षण बतलाया है ।२ धर्मद्रव्य गतिमान् चेतन और पुद्गल का मात्र गति में सहायक कारण है, प्रेरक कारण नहीं है। वास्तव में गति चेतन और पुद्गल में ही है। इसे हम रेल की पटरी की तरह गति का माध्यम कह सकते हैं। यह लोकाकाश-प्रमाण एक अखण्ड-द्रव्य होने से स्वतः निष्क्रिय है। लोक की सीमा के बाहर चेतन और पुदगल का गमन न हो सके अतः इसे लोक की सीमा-प्रमाण माना गया है। अलोक में इस प्रकार के गति के माध्यम का अभाव होने से वहाँ जीवादि की गति का निरोध हो जाता है।
२. अधर्मद्रव्य-धर्मद्रव्य की तरह यह भी पापरूप अधर्म अर्थ का वाचक नहीं है अपितु इसके द्वारा चेतन और,पुद्गल जो क्रियाशील द्रव्य हैं उनके ठहरने में सहायता मिलती है। अतः स्थिति को अधर्म का लक्षण बतलाया है। अर्थात ठहरनेवाले द्रव्यों (जीव-पुद्गल) के ठहरने में सहायता करना इसका कार्य है। इस तरह यह धर्मद्रव्य से ठीक विपरीत द्रव्य है। धर्मद्रव्य गमन में सहायक है तो अधर्मद्रव्य ठहरने में सहायक है। शेष सभी लक्षण धर्मद्रव्य की तरह हैं।
धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य के मानने का मूल कारण है सृष्टि के नियन्ता ईश्वर को न मानना तथा वस्तु-व्यवस्था के साथ लोका
१. भा० सं० जे०, पृ० २२२. २. गइ लक्खणो उ धम्मो।
-उ० २८.६. ३. पंचास्तिकाय, गाथा ८३, ८५; के० ज०, पृ० ६३. ४. अहम्मो ठाणलक्खणो।
-उ० २८.६.
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