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________________ ૨૪૬ ] उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन देता है, फिर सब प्रकार के पदार्थों का ज्ञाता होकर मुक्ति को प्राप्त कर लेता है | अतः ग्रन्थ में इसे सब प्रकार के पदार्थों ( भावों ) को प्रकाशित करनेवाला तथा सब प्रकार के दुःखों से छुटकारा दिलानेवाला कहा है । " ५. ध्यान तप : चित्त को एकाग्र करना ध्यान है । आलम्बन - विषय की दृष्टि से इसके चार भेद किए गए हैं। इसमें आदि के दो ध्यानों में. अशुभालम्बन होता है तथा अन्त के दो ध्यानों में शुभालम्बन होता है | अतः आदि के दो ध्यान अप्रशस्त एवं अनुपादेय हैं तथा अन्त के दो ध्यान प्रशस्त तथा उपादेय हैं । शुभालम्बनवाले प्रशस्त ध्यान ही यहाँ पर ध्यान तप के रूप में गृहीत हैं । 3 ध्यान के ये चार प्रकार निम्नोक्त हैं : क. आर्तध्यान - इष्ट-वियोग, अनिष्ट संयोग आदि सांसारिक दु:खों ( आर्त ) से उत्पन्न विकलतारूप सतत चिन्तन आर्तध्यान है । ख. रौद्रध्यान - हिंसादि में प्रवृत्ति करानेवाले क्रूर ( रौद्र ) विचारों का सतत चिन्तन करना रौद्रध्यान है । ग. धर्मध्यान- किसी एक धार्मिक विषय पर चित्त को एकाग्र करना धर्मध्यान है । तत्त्वार्थ सूत्र में विषय की दृष्टि से इसके चार १. सज्झाएणं नाणावर णिज्जं कम्म खंवेइ || - उ० २६.१८.. सज्झाए वा निउत्तेण सव्वदुक्खविमोक्खणे । - उ० २६.१०. तथा देखिए - उ० २६.२१; २६.२४. २. जीवस्स एगग्ग - जोगाभिणिवेसो झाणं । - उद्धृत, श्रमणसूत्र, पृ० १३६. ३. अट्टरुद्दाणि वज्जित्ता झाएज्जा सुसमाहिए । धम्मसुक्काई झाणाई झाणं तं तु बुहा वए || - उ० ३०.३५.. तथा देखिए - उ० ३१.६; २६.१२; ३४.३१. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004252
Book TitleUttaradhyayan Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherSohanlal Jaindharm Pracharak Samiti
Publication Year1970
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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