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प्रकर ५ : विशेष साध्वाचार
[ ३४७ ख. पृच्छना या प्रतिपृच्छना-विशेष ज्ञानप्राप्ति के लिए तथा सूत्रार्थ में सन्देह उत्पन्न होने पर गुरु से प्रश्न पूछना 'पृच्छना' है। इससे जीव सूत्र और अर्थ ( शब्दार्थ ) का स्पष्ट व सम्यक ज्ञान प्राप्त कर लेता है तथा सन्देह एवं मोह को उत्पन्न करनेवाले कर्म (कांक्षा मोहनीय) को नष्ट कर देता है।' __ग परिवर्तना-ज्ञान को स्थिर बनाए रखने के लिए पढ़े हुए विषय को पूनः-पुनः दुहराना ( पुनरावर्त करना ) परिवर्तना है। इससे जीव को एक अक्षर की स्मृति से तदनुकूल अन्य सैकड़ों अक्षरों की स्मृति ( व्यञ्जनलब्धि ) हो जाती है तथा वे स्मृतिपटल पर स्थिर हो जाते हैं।
घ अनुप्रेक्षा-सूत्रार्थ का चिन्तन एवं मनन करना अनुप्रेक्षा है। इससे जीव आयू.कर्म के अतिरिक्त शेष सात कर्मो के गाढ-बन्धनों को शिथिल कर देता है, दीर्घकाल की स्थितिवाले कर्मों को ह्रस्वकाल की स्थितिवाला कर देता है, तीव्र फलदायिनी शक्ति को अल्प फलदायिनी शक्तिवाला कर देता है, बहुप्रदेशी को अल्पप्रदेशी कर देता है । आयु कर्म का पुनः बन्ध हो या न हो परन्तु दुःख को देनेवाले ( असाता वेदनीय ) कर्मों का वह बार-बार बन्ध नहीं करता है तथा अनादि-अनन्त, दीर्घमार्गी व चतुर्गतिरूप संसारकान्तार को शीघ्र ही पार कर जाता है।'
ङ. धर्मकथा-प्राप्त किए हुए ज्ञान को धर्मोपदेश द्वारा व्यक्त करना ( धर्मोपदेश देना ) धर्मकथा है । इससे जीव कर्मों की निर्जरा करके धर्मसिद्धान्त की उन्नति (प्रवचन-प्रभावना ) करता है।
तदनन्तर भविष्यतकाल में सुखकर शुभ-कर्मों का ही बन्ध . . करता है। .. इस तरह इन पाँचों अंगों के साथ स्वाध्याय तप करने से
जीव ज्ञान को आवृत्त करनेवाले ज्ञानावरणीय कर्म को नष्ट कर
१. उ० २६.२०. २. उ० २६.२१. ३. उ० २६.२२. ४. उ० २६.२३.
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