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________________ ३४६ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन गए हैं।' ग्रन्थ में इस तप का फल बतलाते हए लिखा है कि इससे आशातना रहित ( उच्छृखलता से रहित ) विनय की प्राप्ति होती है। इसके बाद वह चारों गतियों के कर्मबन्ध को रोककर तीर्थङ्कर (जिसके प्रभाव से जीव धर्मप्रवर्तन करके सिद्ध हो जाता है) नामक गोत्र कर्म का बन्ध करता है। इसके अतिरिक्त सब प्रकार के विनयमूलक प्रशस्त-कार्यों को करता हआ अन्य जीवों को भी विनयधर्म में प्रवृत्त कराता है। इस तरह इस. तप का प्रयोजन विनय तप को समृद्ध करना है। ४. स्वाध्याय तप: ज्ञानप्राप्ति के लिए शास्त्रों का अध्ययन करना स्वाध्याय तप है। साध के लिए दिन एवं रात्रि के कुल आठ प्रहरों में से चार प्रहरों में ( अर्थात् १२ घंटे) स्वाध्याय करने का विधान है। इस स्वाध्याय तप के पाँच प्रकार हैं जिनसे युक्त अध्ययन स्वाध्याय कहलाता है। स्वाध्याय के वे पाँच प्रकार ये हैं : 3 क. वाचना-शास्त्रों (सद्ग्रन्थों) का पढ़ना या पढ़ाना 'वाचना' तप है। वाचना से कर्मों की निर्जरा होती है तथा शास्त्रों की सुरक्षा बनी रहती है। किञ्च, साधक वाचना का अभ्यास करके महापर्यवसान ( मोक्ष ) को प्राप्त कर लेता है। १. आयरियमाईए व्यावच्चम्मि दसविहे । आसेवणं जहाथाम वेयावच्चं तमाहियं ।। -उ० ३०.३३. तथा देखिए-उ० १२.२४; २६.६-१०, ३३. २ वेयावच्चेणं तित्थयरनामगोतं कम्मं निबंधइ । -उ० २६ ४. तथा देखिए-उ० २६.४ ३. वायणा पुच्छणा चेव तहेव परियट्टणा। अणुप्पेहा धम्मकहा सज्झाओ पंचहा भवे ।। -उ० ३०.३४. तथा देखिए-उ० २४.८. ४. उ० २६.१६. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004252
Book TitleUttaradhyayan Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherSohanlal Jaindharm Pracharak Samiti
Publication Year1970
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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