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________________ प्रकरण ३ : रत्नत्रय [ २१३ की दूसरी अवस्था है और अवधिज्ञान से श्रेष्ठ है । इस ज्ञान की उत्पत्ति भावों की विशेष निर्मलता और तपस्या आदि के प्रभाव से होती है । ' सरल और जटिल इन दो प्रकार के विचारों को जानने के कारण तत्त्वार्थसूत्र में इस ज्ञान के दो भेद किये गए हैं। 3 इतना विशेष है कि इस ज्ञान के द्वारा दूसरे के मन में चिन्तनीय रूपी द्रव्यों का ही बोध होता है, अरूपी का नहीं | 3 ५. केवलज्ञान - त्रिकालवर्ती समस्त द्रव्यों और उनकी समस्त पर्यायों का एक साथ ज्ञान होना । ४ यह दिव्यज्ञान की सर्वोच्च अवस्था है । इस ज्ञान के उत्पन्न होने पर त्रिकालवर्ती ऐसा कोई भी द्रव्य नहीं बचता है जो इस ज्ञान का विषय न होता हो । यह पूर्ण एवं असीम ज्ञान है। इससे श्रेष्ठ कोई अन्य ज्ञान न होने के कारण ग्रन्थ में इसे अनुत्तर, अनन्त, सम्पूर्ण, प्रतिपूर्ण, आवरण-रहित, अन्धकार - रहित, विशुद्ध तथा लोकालोक-प्रकाशक बतलाया गया है ।" इसके अतिरिक्त इस ज्ञान के धारणकरनेवाले को केवली, केवलज्ञानी तथा सर्वज्ञ कहा गया है । इस ज्ञान की प्राप्ति होने पर जीव उसी प्रकार सुशोभित होता है जिस प्रकार आकाश में सूर्य । १. विशुद्धिक्षेत्र स्वामिविषयेभ्योऽधिमनः पर्यययोः । - त० सू० १.२५. २. ऋजुविपुलमती मन:पर्ययः विशुद्धयप्रतिपाताभ्यां तद्विशेषः । - त० सू० १.२३-२४. ३. देखिए - पृ० १५५, पाटि० १. ४. सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य । - त० सू० १.२६. ५. तओ पच्छा अणुत्तरं, अनंतं, कसिणं, पडिवुण्णं, निरावरणं, वितिमिरं, विसुद्धं लोगालोगप्पभावं केवलवरनाणदंसणं समुप्पादेइ | - उ० २६.७१. ६. उग्गं तवं चरित्ताणं जाया दोणि वि केवली । - उ० २२. ५०. तथा देखिए - उ० २३.१ आदि । ७. स णाण नाणो गए महेसी अगुत्तरं चरिउं धम्मसंचयं । • अणुत्तरे नाणघरे जसंसी ओभासई सूरि एवं Jain Education International लिक्खे ॥ — उ० २१.२३. For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004252
Book TitleUttaradhyayan Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherSohanlal Jaindharm Pracharak Samiti
Publication Year1970
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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