________________
२१४ ]
उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन इस ज्ञान की प्राप्ति हो जाने पर जीव शेष कर्मों को शीघ्र नष्ट करके नियम से मुक्ति को प्राप्त कर लेता है।'
इस तरह इन पाँच प्रकार के ज्ञानों में प्रथम दो ज्ञान इन्द्रियादि की सहायता से उत्पन्न होते हैं और ये किसी न किसी रूप में प्रायः सभी जीवों में पाए जाते हैं । २ यदि ऐसा न माना जाएगा तो जीव में जीवत्व ही न रहेगा क्योंकि चेतना को जीव का लक्षण स्वीकार किया गया है और चेतना दर्शन व ज्ञानरूप स्वीकार की गई है। शेष तीन ज्ञान दिव्यज्ञान की उच्च , उच्चतर और उच्चतम अवस्थाएँ हैं। इनकी प्राप्ति तपस्या आदि के प्रभाव से किन्हीं-किन्हीं को होती है। यहाँ एक बात और स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि जैनदर्शन में इन पाँचों ज्ञानों में ही प्रमाणता स्वीकार की गई है, नैयायिकों की तरह इन्द्रियार्थ-सन्निकर्ष में नहीं। गुरु-शिष्यसम्बन्ध :
ज्ञानप्राप्ति के प्रमुख साधन शास्त्र थे और शास्त्रों का ज्ञान प्राप्त करने के लिए गुरु के समीप जाना पड़ता था। गुरु प्रायः अरण्य में रहते थे और वे सांसारिक विषय-भोगों से विरक्त साध हुआ करते थे। विद्यार्थी उनके समीप में रहकर उनकी आज्ञानुसार अध्ययन किया करते थे। उन विद्यार्थियों में कुछ विनम्र (विनीत) और कुछ अविनम्र (अविनीत) होते थे। . १. जाव सजोगी भवइ, ताव इरियावहियं कम्मं निबंधइ, सुहफरिसं
दुसमय ठिइयं । तं जहा-पढमसमये बद्धं, विइयसमए वेइयं, तइयसमये निज्जिण्णं, तं बद्धं पुठं उदीरियं वेइयं निज्जिण्णं सेयाले य अकम्म चावि भवइ ।
-उ० २६.७१. तथा देखिए-उ० २६.७२. २. एकादीनी भाज्यानि युगपदेकस्मिन्ना चतुर्यः ।
-त. सू० १.३१. तथा देखिए-सर्वार्थसिद्धि १.३१, विशेषावश्यकभाष्य, गाथा ४७४-४७६. ३. तत्प्रमाणे।
-त० सू० १.१०. तथा देखिए-सर्वार्थसिद्धि १.१०.
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org