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________________ प्रकरण ३ : रत्नत्रय [ २१५ विनीत (उत्तम) विद्यार्थी के गुण-ग्रन्थ में उत्तम विद्यार्थी को विनीत कहा गया है और विनीत विद्यार्थी के निम्नोक्त १५ गुण आवश्यक बतलाए हैं : १. हर प्रकार से नम्र, २. चपलता से रहित, ३. छल-कपट से रहित, ४. कौतूहल से रहित, ५. अल्पभाषी, ६. अतिक्रोध को अधिक समय तक न रखना, ७. मित्रता का व्यवहार करना, ८. ज्ञान प्राप्त करके घमण्ड न करना, ६. दूसरों के दोषों को प्रकट न करना, १०. मित्रों पर क्रोध न करना, ११. शत्र के प्रति परोक्ष में भी कल्याण की भावना रखना, १२. कलह व हिंसा न करना, १३. ज्ञान के विषय में जागरूक रहना, १४. लज्जाशील होना और १५. सहनशील होना। ___ इन १५ गुणों के समान ही ग्रन्थ में गुरु के प्रति शिष्य के कुछ अन्य कर्तव्यों का भी उल्लेख मिलता है जिनसे उत्तम व विनीत विद्यार्थी के गुणों पर प्रकाश पड़ता है। वे कर्तव्य इस प्रकार हैं : १ बिना पूछे व्यर्थ न बोलना (अल्पभाषी)२, २. सत्य बोलना (क्रोधादि के वशीभूत होकर कुछ छिपाना नहीं)3, ३. गुरु के प्रिय एवं अप्रिय वचनों को कल्याणकारी समझते हुए उन्हें चुपचाप सुनना तथा किसी प्रकार भी उन्हें क्रोधित न करते हुए क्षमा-याचना करना, ४. गुरु के दोषों का अन्वेषण न करना", ५. गुरु की १. अह पन्नरसहि ठाणेहिं सुविणीए त्ति वच्चई । नीयावत्ती अचवले अमाइ अकुऊहले ।। -उ०११.१०. तथा देखिए-उ०११. ११-१३. २. नापुट्ठो वागरे किंचि पुट्ठो वा नालियं वए ॥ कोहं असच्चं कुम्वेज्जा धारेज्जा पियमप्पियं । -उ० १.१४. तथा देखिए-उ० १.६,११,३६-४१. ३. वही। ४. वही। ५. बुद्धोवघाई न सिया न सिया तोत्तगवेसए । -उ०१.४०. For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004252
Book TitleUttaradhyayan Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherSohanlal Jaindharm Pracharak Samiti
Publication Year1970
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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