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२१२] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन लिए इन्द्रियज्ञान को सांव्यवहारिक-प्रत्यक्ष कहा जाने लगा है और बाद के तीन ज्ञानों को परमार्थ (मुख्य) प्रत्यक्ष । इतना विशेष है कि स्मृति आदि सभी आभिनिबोधिकज्ञान को सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष नहीं माना जाता है अपितु इन्द्रिय-मनोनिमित्तक वर्तमान-विषयक ज्ञान (मतिज्ञान) को ही सांव्यवहारिक-प्रत्यक्ष माना जाता है और शेष अतीतादिविषयक स्मृति आदि सभी ज्ञानों को परोक्ष ही माना जाता है।
३. अवधिज्ञान-अवधि का अर्थ है-सीमा। अतः इन्द्रियादि की सहायता के बिना कुछ सीमा को लिए हुए जो रूपी-पदार्थ के विषय में अन्त:साक्ष्यरूप ज्ञान होता है वह 'अवधिज्ञान' कहलाता है।' इस ज्ञान में अरूपी द्रव्यों का साक्षात्कार नहीं होता है। यह दिव्यज्ञान की प्रथम अवस्था है।
४. मनःपर्यायज्ञान-दूसरों के मनोगत विचारों को जानने की शक्ति के कारण इसे 'मनःपर्यायज्ञान' कहा जाता है। यह दिव्यज्ञान १. तत्प्रत्यक्ष द्विविधम्-सांव्यवहारिकं पारमाथिकं चेति । तत्र देशतो विशदं सांव्यवहारिक प्रत्यक्षम् ।।
-न्यायदीपिका, पृ० ३१. विशदः प्रत्यक्षम् । प्रमाणान्तरानपेक्षेदन्तया प्रतिभासो वा वैशद्यम् । तत् सर्वथावरणविलये चेतनस्य स्वरूपाविर्भावो मुख्यं केवलम् । तत्तारतम्येऽवधिमनःपर्यायो च। ..."इन्द्रियमनोनिमित्तोऽवग्रहेहावायधारणात्मा सांव्यवहारिकम् ।
-प्रमाणमीमांसा १.१.१३-२०. २. अविशदः परोक्षम् । स्मृतिप्रत्यभिज्ञानोहानुमानागमास्तद्विधयः ।
-प्रमाणमीमांसा १.२.१-२. ३. रूपिष्ववधेः ।
-त० सू० १.२७. भवप्रत्ययोऽवधिदेवनारकाणाम् । क्षयोपशमनिमित्तः षड्विकल्पः शेषाणाम् ।
-त० सू० १. २१-२२.
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