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प्रकरण ३ : रत्नत्रय
[२११ वाची नाम मिलते हैं।' इससे प्रतीत होता है कि इन्द्रिय और मन की सहायता से होनेवाला समस्त ज्ञान आभिनिबोधिक ही है। दिगम्बर२ और श्वेताम्बर प्राचीन ग्रन्थों में मतिज्ञान' के अर्थ में 'आभिनिबोधिक' नाम मिलने से प्रतीत होता है कि इसका प्राचीन प्रचलित नाम आभिनिबोधिक ही था। इस ज्ञान के विषय में एक अन्य अन्तर दृष्टिगोचर होता है, वह यह कि सामान्यरूप से जैनदर्शन में सर्वत्र शब्दज्ञान के पूर्व इन्द्रियज्ञान (आभिनिबोधिकमतिज्ञान) को स्वीकार किया गया है जबकि प्रकृत ग्रन्थ में इन्द्रियज्ञान के पूर्व शब्दज्ञान को गिनाया गया है। इसका कारण यही प्रतीत होता है कि 'शास्त्रज्ञान' का महत्त्व प्रकट करने के लिए प्रकृत ग्रन्थ में शास्त्रज्ञान को पहले गिनाया गया हो और बाद में ज्ञान की उत्तरोत्तर श्रेष्ठता के आधार से क्रम निर्धारित किया गया हो। इसी प्रकार इनके आवरक कर्मों के नाम व क्रम में भी अन्तर है। यहाँ एक बात और स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि जैनदर्शन में श्रुतज्ञान और आभिनिबोधिकज्ञान की उत्पत्ति पर-सापेक्ष (शास्त्र व इन्द्रियादि सापेक्ष) होने से इन दोनों को 'परोक्षज्ञान' (अप्रत्यक्ष माना गया है तथा बाद के तीन ज्ञानों को साक्षात् आत्मा से ही प्रकट होने के कारण (पर-सापेक्ष न होने से) प्रत्यक्ष स्वीकार किया गया है। वर्तमान में व्यवहार को चलाने के १. ईहा अपोह वीमंसा मग्गणा य गवेसणा। सण्णा सई मई पण्णा सव्वं आभिणिबोहियं ।।
-आवश्यकनियुक्ति, गाथा १२. २. भावपमाणं पंचविहं, आभिणिबोहियणाणं सुदणाणं ओहिणाणं मणपज्जवणाणं केवलणाणं चेदि।
धवलाटीका-पट् खण्डागम, पुस्तक १ (१.१.१), पृ० ८०. आभिणिसुदोधिमणकेवलाणि णाणाणि पंचभेयाणि । कुमदिसुदविभंगाणि य तिष्णि वि णाणेहिं संजुत्ते ॥
-पञ्चास्तिकाय, गाथा ४१. ३. श्रुतं मतिपूर्वम् ।
-त० सू० १.२०. ४. आद्ये परोक्षम् । प्रत्यक्षमन्यत् ।
-त० सू० १.११-१२.
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