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२१०] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन पर्वत से निकली हुई व समुद्र की ओर जानेवाली नदियों में श्रेष्ठ 'शीता' नदी की तरह शोभा-सम्पन्न, १५ नाना औषधियों से देदीप्यमान पर्वतों में श्रेष्ठ अतिविस्तृत 'सुमेरु' (मन्दार) पर्वत की तरह प्रधान और १६. अक्षय जल व नाना रत्नों से भरे हुए 'स्वयम्भू रमण' समुद्र की तरह गम्भीर ।
ये सभी दृष्टान्त साभिप्राय विशेषणों से युक्त हैं जिनसे श्रुतज्ञानी के स्वाभाविक गुणों पर प्रकाश पड़ता है। जैसे' श्रुतज्ञानी समुद्र की तरह गम्भीर, प्रतिवादियों से अपराजेय, अतिरस्कृत, विस्तृत श्रतज्ञान से पूर्ण, जीवों का रक्षक, कर्म-क्षयकर्ता, उत्तम अर्थ की गवेषणा करने वाला और स्व-पर को मूक्ति प्राप्त कराने वाला होता है। इसी तरह श्रुतज्ञानी के अन्य अनेक गुण स्वतः समझे जा सकते हैं। सत्यज्ञान की प्राप्ति में शास्त्रों का स्थान प्रमुख होने से श्रुतज्ञानी की बहुत्र प्रशंसा करके उसका फल मूक्ति बतलाया गया है ।
२. आभिनिबोधिकज्ञान-चक्ष आदि इन्द्रियों और मन की सहायता से उत्पन्न होने वाला ज्ञान 'आभिनिबोधिक' कहलाता है । जैनदर्शन में इसका प्रचलित नाम 'मतिज्ञान' है क्योंकि यह इन्द्रियादि की सहायता से होता है। तत्त्वार्थसूत्र में मति (वर्तमान को विषय करने वाली), स्मृति (अतीत-विषयक अर्थात पूर्व में अनुभव की गई वस्तु को स्मरण कराने वाली), संज्ञा (अतीत और वर्तमान को विषय करनेवाली अर्थात 'यह वही है' इस प्रकार के प्रत्यभिज्ञानरूप), चिन्ता (तर्क) और अभिनिबोध (सामान्यज्ञानरूप अनुमान) को एकार्थवाचक बतलाया है क्योंकि इन सब ज्ञानों की उत्पत्ति में इन्द्रियादि की सहायता रहती है। इसी प्रकार आवश्यक. नियुक्ति में भी अभिनिबोध के ईहा (प्रथम क्षण देखे गए पदार्थ के विषय में विशेष जानने की चेष्टारूप ज्ञान) आदि कई पर्याय
१. वही; तथा उ० ११. ३२; २६.२४,५६; १०.१८; ३. १, २०, २. वही (उ० ११.३१; २६.५.६) । ३. मतिः स्मृति संज्ञा चिन्ताऽभिनिबोध इत्यनर्थान्तरम् ।
-त० सू० १.१३.
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