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२४४ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन माना गया है। इसके अतिरिक्त श्रुतज्ञान भी सभी जीवों में किसी न किसी रूप में अवश्य पाया जाता है । इसीलिए तत्त्वार्थसूत्र में कहा है कि यदि किसी को एक ज्ञान होता है तो वह 'केवलज्ञान' होगा। अन्यथा संसारी जीवों को कम से कम दो ज्ञान (मति व श्रुतज्ञान) अवश्य होते हैं।' यह श्रुतज्ञान शास्त्रजन्यज्ञान या आगमज्ञान है न कि समस्त श्रवणेन्द्रियजन्य ज्ञान क्योंकि श्रवणेन्द्रियजन्य सामान्यज्ञान तो मतिज्ञान का एक भेद है। यह अवश्य है कि श्रुतज्ञान में सामान्यतया श्रवणेन्द्रिय की अपेक्षा रहती है। परन्तु समस्त श्रवणेन्द्रियज्ञान श्रुतज्ञान नहीं है। यहाँ इतना विशेष है कि शब्द और श्रवणेन्द्रिय का प्रथम स्पर्श होने पर जो ज्ञान होता है वह श्रवणेन्द्रियजन्य मतिज्ञान है तथा इसके बाद मन की सहायता से जो अर्थादि का विचार होता है वह श्रुतज्ञान है। अतः श्रुतज्ञान को जैनदर्शन में अनिन्द्रिय (मन) निमित्तक मानकर मतिपूर्वक स्वीकार किया गया है। यह श्रुतज्ञान केवल अक्षरात्मक ही होता है, ऐसी बात नहीं है। यह श्रतज्ञान अनक्षरात्मक भी होता है। अतः ऐसी स्थिति में ही यह श्रतज्ञान एकेन्द्रियादि जीवों के स्वीकार किया गया है। जहाँ तक सम्यक-श्रुतज्ञान का प्रश्न है वह संज्ञी (मनसहित) पंचेन्द्रिय जीवों के ही संभव है और वह भी किन्हीं-किन्हीं को होता है, सबको नहीं होता है।
ग्रन्थ में शास्त्रज्ञान का महत्त्व बतलाने का कारण यह है कि ये शास्त्र सत-दष्टिरूप सम्यग्दर्शन की प्राप्ति में प्रमुख बाह्य निमित्तकारण हैं। जिस प्रकार शास्त्र सत-दष्टिरूप सम्यग्दर्शन की प्राप्ति में कारण हैं उसी प्रकार शास्त्रज्ञानी गुरु भी सम्यग्दर्शन की प्राप्ति में कारण हैं क्योंकि गुरूपदेश ही शास्त्रज्ञान व सत्दृष्टिरूप सम्यग्दर्शन की प्राप्ति में सहायक होते हैं। अतः ग्रन्थ में गुरु के भी महत्त्व को बतलाया गया है। शास्त्रज्ञान प्राप्त करने के लिए शिष्य को गुरु के समीप जाना पड़ता है और गुरु भी विनीत व योग्य शिष्य को पाकर समस्तज्ञान उसे दे देता है। जो शिष्य गुरु की अविनय करते हैं वे उस ज्ञान की प्राप्ति से वञ्चित रह जाते हैं। अतः ज्ञानप्राप्ति के लिए शिष्य को जिन १. देखिए-पृ० २१४, पा० टि० २.
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