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१७६ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन अविरति और प्रमाद राग व मोह स्थानापन्न हैं। कषाय रागद्वेषरूप हैं और योग प्रवृत्तिमात्र में कारण है। इसीलिए उत्तराध्ययन में भी कहीं-कहीं मिथ्यात्व और प्रमाद को संसार एवं कर्मबन्ध का हेतु बतलाया गया है।'
बौद्धदर्शन में इस विषय की जो कारण-कार्यशृङ्खला बतलाई गई है उसके भी मूल में अविद्या ( अज्ञान ) है। अविद्या और दुःख के बीच जो अन्य कारण गिनाए गए हैं. उनमें तृष्णा, भव (अच्छे-बुरे कार्य), जाति और जरा-मरण भी हैं। इस तरह दुःखों के मूल कारण को खोजते-खोजते दोनों दर्शन एक ही स्थान पर पहुँचकर रुक जाते हैं । परन्तु अज्ञान क्या है ? इस विषय में दोनों दर्शनों के सिद्धान्त भिन्न-भिन्न हैं। ग्रन्थ में जहां अचेतन से चेतन के पार्थक्य-बोध को ज्ञान कहा गया है वहां बौद्ध दर्शन में उस पार्थक्य-बोध को अज्ञान माना गया है क्योंकि बौद्धदर्शन में आत्मा नामक कोई स्थायी चेतन-द्रव्य स्वीकृत नहीं है। दुःख का मूल कारण अज्ञान है इसमें शायद किसी को भी विवाद नहीं होगा। गीता में भी मोह का कारण अज्ञान ही स्वीकार किया गया है।
३. जिस कर्मबन्ध को संसार या दुःख के कारणों में साक्षात् कारण स्वीकार किया गया है वह एक शरीर-विशेष की रचना करता है जो वेदान्तदर्शन में स्वीकृत (स्थूल शरीर के भीतर वर्तमान) सूक्ष्मशरीर स्थानापन्न है क्योंकि ये कर्म आत्मा के साथ बद्ध
१. उ० २६.५, ६०, ७१ १०.१५. २. बौद्धदर्शन में दु:ख के जो बारह कारण गिनाए गए हैं उन्हें भवचक्र,
द्वादश-आयतन और प्रतीत्यसमुत्पाद कहा जाता है। उनके क्रमशः नाम ये हैं- अविद्या→ संस्कार →विज्ञान →नामरूप→ षडायतन (छः इन्द्रियाँ मनसहित)→स्पर्श → वेदना→तृष्णा→उपादान →भव (भलेबुरे कर्म) → जाति-जरा-मरण →दुःख ।
- भा० द० ब०, पृ० १५४. ३. अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः ।
-गीता ५.१५. ४. वेदान्तसार, पृ० ३४.
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