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________________ प्रकरण २ : संसार [ १७५ किया गया है। इसके बाद कर्मबन्ध का भी कारण राग-द्वेष और रागद्वेष का भी मूल कारण अज्ञान माना गया है। यद्यपि राग-द्वेष और अज्ञान के बीच में क्रमश: मोह, तृष्णा और लोभ को भी कारणरूप से बतलाया गया है परन्तु मोह, तृष्णा और लोभ ये राग की ही उत्कट अवस्थारूप हैं। यदि इन्हें भी पृथक कारणरूप से गिनाया जाय तो संसार की कार्य-कारणपरम्परा इस प्रकार होती है : जन्ममरणरूप संसार → कर्मबन्ध→रागद्वेष→मोह →तृष्णा→लोभ → अज्ञान । . ग्रन्थ में यद्यपि इस कार्य-कारणशृङ्खला का सुव्यवस्थित रूप नहीं मिलता है क्योंकि कहीं पर अज्ञान को, कहीं राग को, कहीं द्वेष को, कहीं रागद्वेष को, कहीं पापकर्म को, कहीं कर्ममात्र को, कहीं मोह को, कहीं संसार को, कही मनोज्ञामनोज्ञ वस्तुओं को, कहीं इन सब को एक दूसरे के साथ जोड़कर कार्यकारण का विचार किया गया है। इससे कौन किसका साक्षात कारण है। और कौन परम्परया कारण है इसकी सामान्यतया स्पष्ट प्रतीति नहीं होती है। परन्तु ध्यानपूर्वक विचार करने पर इन सबके मूल में उपर्युक्त कार्यकारणशृङ्खला ही कार्य करती है। अतः ग्रन्थ में कहीं-कहीं जो इनका आगे-पीछे या एक-दूसरे के साथ सम्मिलितरूप से उल्लेख किया गया है उसका कारण है--अवसर-. विशेष पर-कारण-विशेष को महत्त्व देना। तत्त्वार्थसत्र में कर्मबन्ध. के कारणों का विचार करते समय जिन पाँच कारणों को गिनाया गया है उनको देखने से भी इसी कार्य कारणशृङ्खला का समर्थन होता है। तत्त्वार्थसूत्र में बतलाए गए उन पांच कारणों के क्रमशः नाम ये हैं: १. मिथ्यात्व ( अपने आत्मस्वरूप को भूलकर शरीरादि पर-द्रव्य में आत्मबुद्धि करना-स्वपरविवेकाभावरूप अज्ञान ), २. अविरति ( विषयों में राग-द्वेष करना), ३. प्रमाद (असावधानी), ४ कषाय (कलुषित भाव) और ५. योग (मनवचन-काय की प्रवृत्ति)। यहां मिथ्यात्व अज्ञानरूप ही है। १. मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमाद कषाययोगा बन्ध हेतवः । -त० सू० ८.१. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004252
Book TitleUttaradhyayan Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherSohanlal Jaindharm Pracharak Samiti
Publication Year1970
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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