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________________ १७४ ] उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन आज के विज्ञान ने जो इतनी उन्नति की है उसका कारण है। विषय-भोगों में आसक्ति । फिर कैसे कहा जा सकता है कि विषयभोगों में आसक्ति नहीं करनी चाहिए ? इसके विषय में मेरा कहना है कि प्रकृत-ग्रन्थ असीम एवं अनन्त सुख की ओर ले जाना चाहता है । अतः इसमें जो आध्यात्मिक पथ का अनुसरण किया गया है, वह ठीक है । शरीर की नश्वरता को देखकर तथा संसार में फैले हुए भ्रष्टाचार को रोकने के लिए ऐसा कथन सत्य है । आज के इस वैज्ञानिक युग में भी प्रकृत ग्रन्थ के इस उपदेश को ही नये वैज्ञानिक साँचे में ढालकर समाजशास्त्र व धर्मशास्त्र के रूप में दिया जाता है । यदि हम निष्पक्षदृष्टि से विचार करेंगे तो देखेंगे कि विज्ञान की इतनी उन्नति होने पर भी मानव सुखी, नहीं है अपितु पहले से भी अधिक परेशान और दुःखी नजर आ रहा हैं । फिर ग्रन्थ में कहे गये इस कटु सत्य का कि संसार के विषयभोगों में सुख नही मिलता है, कैसे अपलाप किया जा सकता है ? आज जो भी तर्क हम इसके विरोध में दे सकते हैं वे पहले भी दिए जाते थे । परन्तु जो सत्य है वह हमेशा सत्य ही रहेगा । इस कथन की वास्तविकता और अवास्तविकता पर विचार करते: समय हमें उस दृष्टि को सामने अवश्य रखना होगा जिसे माध्यम बनाकर इस ग्रन्थ को लिखा गया है । वौद्धदर्शन के प्रवर्तकः भगवान् गौतम बुद्ध ने भी जिन चार आर्यसत्यों को खोजा था उनमें प्रथम आर्यसत्य दुःख है । इसके अतिरिक्त दुःख के कारण मौजूद हैं (दुःख समुदय), दुःख से निवृति संभव है ( निरोध- सत्य ) और दुःखों से निवृत्ति का उपाय भी है ( निरोधगामिनी प्रतिपदा) - ये अन्य तीन आर्यसत्य ।' प्रकृत ग्रन्थ में जिस प्रकार प्रथम दुःखसत्य को स्वीकार किया गया है उसी प्रकार अन्य तीन सत्यों को भी स्वीकार किया गया है जिसका हम आगे के प्रकरणों में यथावसर विचार करेंगे । २. सांसारिक दुःखों के कारणों का विचार करते हुए ग्रन्थ में जन्म-मरणरूप संसार का साक्षात् कारण कर्मबन्ध स्वीकार १. देखिए - प्रकरण ३. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004252
Book TitleUttaradhyayan Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherSohanlal Jaindharm Pracharak Samiti
Publication Year1970
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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