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________________ प्रकरण २ : संसार [ १७७ होकर स्थूलशरीर से पृथक् एक शरीर की रचना करते हैं जिसे जैनदर्शन में कार्मणशरीर कहा गया है । यह कार्मणशरीर स्थल शरीर के नष्ट हो जाने पर भी नष्ट नहीं होता है । इसके अतिरिक्त वह अग्रिम जन्म में स्थूल शरीर की प्राप्ति में कारण भी होता है । इस प्रक्रिया को स्पष्ट करने के लिए कर्मबन्ध में सहायक छः श्याओं को स्वीकार किया गया है। इन कर्म और लेश्याओं में घनिष्ठ सम्बन्ध होने के कारण ही ग्रन्थ में लेश्याओं को कर्मलेश्या कहा गया है । ये लेश्याएँ एक प्रकार के लेप्यद्रव्य का कार्य करती हैं जिससे कर्म-परमाणु आत्मा के साथ चिपक जाते हैं । शुभाशुभ कर्मों से जिस प्रकार की लेश्या प्राप्त होती है तदनुसार ही जीव कर्मों में प्रवृत्त होता है । इसके बाद पुनः शुभाशुभरूप से प्रवृत्ति करने पर पुन: - कर्मबन्ध होता है । इस तरह अबाध - संसार का चक्र चलता रहता है । कर्मों का अभाव होने पर इसका भी अभाव हो जाता है । ग्रन्थ में इस कर्म और लेश्या-विषयक वर्णन के द्वारा सांसारिक सुख और दुःख के कारणों का स्पष्टीकरण किया गया है। इस सिद्धान्त के स्वीकार कर लेने से संसार के वैचित्रय की गुत्थी को सुलझाने के लिए ईश्वर - कल्पना की आवश्यकता नहीं पड़ती है और एक स्वचालित मशीन की तरह संसार की प्रक्रिया चलती रहती है । कर्मकाण्डी मीमांसादर्शन की तरह वैदिक यागादि क्रियाएँ यहाँ कर्म नहीं हैं क्योंकि मीमांसादर्शन में यागादि क्रियाओं से अदृष्टविशेष की उत्पत्ति होती है और तब उसके प्रभाव से स्वर्गादि की प्राप्ति होती है । प्रकृतग्रन्थ में जीव में हर क्षण · होने वाली श्वासादि सूक्ष्म से सूक्ष्म क्रिया, मन के विचार आदि सभी कर्म के कारण हैं । यह दूसरी बात है कि सभी क्रियाएँ बन्ध में कारण न हो परन्तु क्रियामात्र कर्म अवश्य है । उनमें से केवल सराग क्रियाएँ ( सकाम कर्म) ही कर्मबन्ध में कारण हैं । अतः संसार के आवागमन में कारण होने से वे ही यहाँ पर कर्म शब्द से कही गई हैं। इसके अतिरिक्त शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के कर्म बन्ध में कारण होने से हेय बतलाए गए हैं । संसारी जीव में पाई जानेवाली प्रत्येक क्रिया, सुख-दुःखानुभूति, ज्ञानादि की प्राप्ति, जीवन की स्थिति, शुभाशुभ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004252
Book TitleUttaradhyayan Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherSohanlal Jaindharm Pracharak Samiti
Publication Year1970
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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