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१७८ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन शरीरादि की प्राप्ति, लाभालाभ की प्राप्ति आदि सभी पहलुओं की व्याख्या इस कर्म-सिद्धान्त द्वारा की गई है और आवश्यकतानुसार कर्मों के अवान्तर भेदों की कल्पना की गई है। कर्म का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण होने से इस कर्म-सिद्धान्त को जैन मनोविज्ञान कहा जा सकता है।
इस तरह इस प्रकरण में ग्रन्थानुसार संसार को दुःखों से पूर्ण बतलाकर उसके कारणों पर आध्यात्मिक दृष्टिकोण से विचार. प्रस्तुत किया गया है। पुनर्जन्म, परलोक आदि स्वीकार किए बिना यह वर्णन संगत नहीं हो सकता है। शरीरादि को नश्वरता और जन्म-मरण की प्राप्ति ही दुःख है। इसीलिए संसार के विषयभोग-जन्य सुखों को भी दुःखरूप माना गया है। संसार के कारणों में कर्मबन्ध को स्वीकार करके यह दिखलाया गया है कि जीव के द्वारा किया गया कोई भी अच्छा या बुरा कम किसी भी तरह छिप नहीं सकता है, उसका फल अवश्य भोगना पड़ेगा। संसार में सामाजिक व्यवस्था बनाए रखने तथा अत्याचार-अनाचार आदि को रोकने के लिए भी ऐसा वर्णन आवश्यक था और है।
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