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प्रकरण ३
रत्नत्रय
दुःखों की अनुभूति प्रत्येक प्राणी को कटु मालूम होती है । अतः वे दुःखों से छुटकारा पाने के लिए नाना प्रकार के प्रयत्न करते देखे जाते हैं। सांसारिक जितने भी प्रयत्न हैं वे सब क्षणिक सुख को देने के कारण वास्तव में दुःखरूप ही हैं। अविनश्वर सुख की प्राप्ति के लिए चेतन और अचेतन के संयोग और वियोग की आध्यात्मिक प्रक्रिया को जिन नव तथ्यों ( तत्त्वों-सत्यों ) में विभाजित किया गया है उनमें पूर्ण विश्वास ( सम्यग्दर्शन ), उनका पूर्णज्ञान ( सम्यग्ज्ञान ) और तदनुसार आचरण ( सम्यक्चारित्र ) आवश्यक है। इस तरह अविनश्वर सुख की प्राप्ति में सहायक सम्यग्दर्शन ( सत्य-श्रद्धा ), सम्यग्ज्ञान (सत्यज्ञान ) और सम्यक्चारित्र ( सत-आचरण ) इन तीन साधनों को ही यहां पर 'रत्नत्रय' शब्द से कहा गया है। इन तीनों साधनों पर विचार करने के पूर्व चेतन और अचेतन के संयोग और वियोग की आध्यात्मिक-प्रक्रिया को जिन नौ तथ्यों में विभाजित किया गया है उनका विचार आवश्यक है। नव तथ्य (तत्त्व) :
चेतन-अचेतन और इनके संयोग-वियोग की कारणकार्यशृङ्खला के त्रिकालवर्ती सत्य होने के कारण इन्हें तथ्य ( सत्य या तत्त्व ) शब्द से कहा गया है। इन नव तथ्यों के नाम क्रमशः ये हैं :१ १. जीव ( चेतन ), २. अजीव ( अचेतन ), ३. बन्ध ( चेतन और अचेतन की सम्बन्धावस्था ), ४. पुण्य ( अहिंसादि शुभ-कार्य ), १. जीवाजीवा य बन्धो य पुग्णं पावाऽऽसवो तहा। संवगे निज्जरा मोक्खो संति एए तहिया नव ।।
-उ० २८.१४.
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