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________________ प्रकरण १ : द्रव्य-विचार [११६ • इस तरह द्रव्य की इस परिभाषा के अनुसार द्रव्य में परस्पर विरोधी दो अंश हैं : १. नित्य (ध्रव) और २. अनित्य (उत्पाद और व्यय) । नित्यांश को गुण' कहा जाता है और अनित्यांश को 'पर्याय' ( अवस्था-विशेष )। ये दोनों अंश द्रव्य से सर्वथा पृथक्-पृथक् नहीं हैं क्योंकि ध्रुवांश परिवर्तन के अभाव में और परिवर्तनरूप अंश ध्रुवांश के अभाव में कुछ भी नहीं है। अतः गुण 'और पर्याय को सिर्फ समझाया जा सकता है, उनकी द्रव्य में पृथक्-पृथक् स्थिति नहीं बतलाई जा सकती है कि अमुक द्रव्यांश गुणरूप है और अमुक पर्यायरूप है। जिस प्रकार गुण और पर्यायों को द्रव्य से पृथक-पृथक नहीं बतलाया जा सकता है उसी प्रकार गुण और पर्यायों से पृथक द्रव्य को भी नहीं बतलाया जा सकता है क्योंकि गुण और पर्यायों से पृथक द्रव्य कुछ भी नहीं है। अतः तत्त्वार्थसूत्र में गूण और पर्यायों से युक्त को द्रव्य कहा गया है।' द्रव्य में होने वाली अनुगताकार (अभेदाकार समानाकार) प्रतीति तो गूण है और भेदाकार प्रतीति पर्याय है । 'गुण' द्रव्य के नित्य-धर्म हैं तथा पर्याएँ आगन्तुक-धर्म हैं। 'गुण' द्रव्य-स्वरूप हैं और पर्याएँ उसकी उपाधि द्रव्य की तरह गुणों की भी पर्याएँ होती हैं और पर्यायों की भी अवान्तर पर्याएँ होती हैं। गुण और पर्याय दोनों द्रव्य के अङ्ग हैं एवं द्रव्य के आश्रय से रहते हैं। अत. गुण और पर्यायों के साथ द्रव्य का अङ्गाङ्गिभाव तथा आश्रयाश्रयिभाव सम्बन्ध है। इनके इस सम्बन्ध को संयोग-सम्बन्ध नहीं कहा जा सकता है क्योंकि संयोग-सम्बन्ध उन्हीं वस्तुओं में होता है जिन्हें एक-दूसरे से पृथक्-पृथक् किया जा सके। इस तरह गुण और पर्यायों की द्रव्य से सर्वथा पृथक स्थिति न होने के कारण हम उनमें तादात्म्य-सम्बन्ध स्वीकार कर सकते हैं। - गुणों का द्रव्य के साथ नित्य-सम्बन्ध होने के कारण ग्रन्थ में द्रव्य का लक्षण किया है 'जो गुणों का आश्रय हो'।२ गुण किसी १. गुणपर्यायवत्द्र व्यम् । -त० सू० ५. ३८. २. गुणाणमासवो दव्वं । -उ० २८.६. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004252
Book TitleUttaradhyayan Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherSohanlal Jaindharm Pracharak Samiti
Publication Year1970
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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