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________________ noi ११८] उत्तराव्ययन-सूत्र : एक परिशीलन . देवलोक पर्यन्त देवों का यश, प्रकाश, ऐश्वर्य आदि उत्तरोत्तर बढ़ता जाता है तथा मोह, जो संसार का हेतु है, क्रमशः कम होता जाता है।' असुर, यक्ष, राक्षस, पिशाच आदि निम्न श्रेणी के देव कहलाते हैं। अतः ग्रन्थ में जहाँ भी देवों के ऐश्वर्य आदि का वर्णन किया गया है वह श्रेष्ठ देवों की अपेक्षा से किया गया समझना चाहिए। __इस तरह चेतन और अचेतन-रूप षड्-द्रव्यों का वर्णन किया गया। द्रव्य-लक्षण छः द्रव्यों का पृथक-पृथक स्वरूप ज्ञात कर लेने के बाद प्रश्न उठता है कि आखिर द्रव्य का स्वरूप क्या है ?. जिसके आधार से इन छः द्रव्यों में ही द्रव्यता है, कम या अधिक में नहीं । जैनदर्शन में उत्पाद, विनाश और ध्रुवता इन तीन विशेषणों से विशिष्ट सत्तावान को द्रव्य कहा गया है।२ इसका तात्पर्य है कि द्रव्य सतरूप है, अभावात्मक नहीं है। वह वेदान्तियों की तरह . कूटस्थ-नित्य तथा बौद्धों की तरह एकान्ततः अनित्य नहीं है। वास्तव में द्रव्य नित्य होकर भी प्रतिक्षण कुछ न कुछ परिवर्तनों से युक्त है। इन परिवर्तनों के होते रहने पर भी द्रव्य की नित्यता में व्याघात नहीं होता है ।। अप्पिया देवकामाणं कामरूव विउविणो।। उड्ढं कप्पेसु चिट्ठन्ति पुव्वा वाससया बहू ॥ -~-उ० ३.१४-१५. तथा देखिए-उ० ५.२७. १. उत्तराई विमोहाइं जुइमन्ताऽणु पुत्वसो।। समाइण्णाई जखेहिं आवासाइं जसंसिणो ॥ -उ• ५. २६. २. सत् द्रव्यलक्षणम् । उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत् -त० सू० ५.२६-३० ३. जैसे सोने के पिण्ड से घट बनाने पर पिण्डरूप पर्याय का विनाश, घटरूप पर्याय की उत्पत्ति तथा सुवर्णरूपता की स्थिरता वर्तमान रहती है वैसे ही द्रव्य में अनेक परिवर्तनों के होते रहने पर भी ध्र वांश सर्वथा विनष्ट नहीं होता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004252
Book TitleUttaradhyayan Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherSohanlal Jaindharm Pracharak Samiti
Publication Year1970
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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