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२३४] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन चारित्र के विभाजन का दूसरा प्रकार :
सदाचार का पालन करने वाले गहस्थ और साध की अपेक्षा से ग्रन्थ में अन्य प्रकार से भी चारित्र का विभाजन किया गया है जिसे गृहस्थाचार और साध्वाचार के नाम से कहा जा सकता है। इस प्रकार के विभाजन का यह तात्पर्य नहीं है कि गृहस्थाचार
और साध्वाचार परस्पर पृथक्-पृथक हैं अपित गृहस्थाचार साध्वाचार की प्रारम्भिक अभ्यास की अवस्था है। गहस्थ सामाजिक एवं कुटम्ब-सम्बन्धी कार्यों को करता हआ अहिंसादि पाँच व्रतों का स्थूलरूप से पालन करता है जबकि साधु उन्हीं अहिंसादि व्रतों का सूक्ष्मातिसूक्ष्मरूप से पालन करता है । गृहत्यागी साधु का समाज
जिसने सब मोहनीय कर्मों का उपशम कर दिया है ऐसे जीव की स्थिति (यह गुणस्थान सिर्फ उपशमश्रेणी वाले जीव को ही होता है), १२. क्षीण-मोह-जिसने सम्पूर्ण मोहनीय कर्मों को हमेशा के लिए नष्ट कर दिया है, १३. सयोगकेवली- जो मन-वचन-काय की क्रिया (योग) से युक्त है ऐसे केवलज्ञानी (जीवन्मुक्त) जीव की स्थिति और १४. अयोग-केवली-सब प्रकार की क्रियाओं से रहित केवलज्ञानी (जीवन्मुक्त) की चरमावस्था ।
जीव की इन १४ अवस्थाओं में से मिथ्यादृष्टि सबसे निम्नकोटि के आचारवाला व्यक्ति है तथा अयोग केवली सर्वोच्च सदाचारसम्पन्न जीव है। इनमें उत्तरोत्तर संसार के विषयों से ममत्व (मोह) घटता गया है। वस्तुतः सदाचार का विकास चौथी अवस्था से प्रारम्भ होता है और क्षीणमोह की अवस्था में पूर्ण हो जाता है। अन्तिम दो अवस्थाएँ मन-वचन-काय की क्रिया (योग) से सहित व रहित ऐसे दो प्रकार के जीवन्मुक्तों की हैं। इस तरह सामायिकचारित्र कथंचित् चौथे और पांचवें गुणस्थान में, छेदोपस्थापनाचारित्र ६ठे और ७ वें में, परिहारविशुद्धिचारित्र ८ वें और 8वें में, सूक्ष्मसम्परायचारित्र १० वें में और यथाख्यातचारित्र ११ वें से अन्त तक पाया जाता है। अन्तिम दो अवस्थाओं का विशेष वर्णन मुक्ति के प्रकरण में किया जाएगा। देखिए-समवा०, समवाय १४; गोम्मटसार-जीवकाण्ड, परिच्छेद १.
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