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उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन
वाले ( पृथिवीकायिक), २ जल शरीर वाले (अपकायिक) और ३. वनस्पति शरीर वाले ( वनस्पतिकायिक ) । यह गमनकर्तृ क विभाजक रेखा ग्रन्थ में सर्वत्र दृष्टिगोचर नहीं होती है क्योंकि अन्यत्र अग्निशरीर वाले ( अग्निकायिक) तथा वायु शरीर वाले ( वायुकायिक) एकेन्द्रिय जीवों को भी इनके साथही गिनाया गया तथा शेष को त्रस कहा है।" इसी तरह जहाँ त्रस जीव के भेद गिनाए गए हैं वहाँ द्वीन्द्रियादि को प्रधान ( उराल) त्रस कहा गया है । इसका तात्पर्य है कि वायुकायिक और तेजस्कायिक को किसी अपेक्षा से त्रस कहा जा सकता है । अन्यथा वे स्थावर ही हैं । अत: उन्हें हम अप्रधान त्रस शब्द से भी कह सकते हैं । यहाँ एक बात और विचारणीय है कि जिस प्रकार अग्नि के ऊर्ध्वगमन करने से तथा वायु के तिर्यक्गमन करने से उनमें सरूपता मानी जाती है उसी प्रकार जल में भी अधोगमन तथा वनस्पतियों में ऊर्ध्व और अधोगमन दोनों होने से जलकायिक और वनस्पतिकायिक में त्रसरूपता क्यों नहीं है ? इसका तात्पर्य है कि यदि अग्नि को त्रस कहा जाता है तो वनस्पति को भी त्रस कहना चाहिए क्योंकि ये दोनों अपने मूल स्थान से सर्वथा न हटते हुए ही गमन करते हैं । यदि वायु को स्वस्थान से हटने के कारण त्रस कहा जाता है तो जल में भी यही बात होने से उसे भी त्रस कहना चाहिए | मालूम पड़ता है इस विषय को लेकर पहले भी स्थावर जीवों के विभाजन में मतान्तर रहे हैं । अतः उत्तराध्ययन में बहुत स्थलों पर छः काय के जीवों का उल्लेख किया गया है । छः काय के जीवों में पाँच स्थावर और एक त्रस का भेद लिया गया है । 3
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९. पुढवी - आउक्काए तेऊ - वाऊ - वणस्सइ-तसाणं ।
तथा देखिए - उ० २६.३१.
२. इत्तो उ तसे तिविहे वृच्छामि अणुपुब्वसो । ऊ वाऊ य बोधव्वा उराला य तसा तहा ||
तथा देखिए - उ० ३६.१०७, १२६. ३. देखिए - पृ० ४, पा० टि० १.
- उ० २६.३०.
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- उ० ३६.१०६.
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