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________________ उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन से युद्ध करने के लिए सन्नद्ध हो ? जैसे : इस आध्यात्मिक संग्राम में श्रद्धा नगर है, तप-संवर अर्गला है, शान्ति प्राकार (कोट) है, तीन गुप्तियाँ शतघ्नी ( शस्त्र ) हैं, संयम में उद्योग धनुष है, ईर्या समिति प्रत्यञ्चा है, धैर्य केतन है, सत्य धनुष पर बाँधने की डोरी है, तप बाण है, श्रुतज्ञान की धारा कवच है, अवशीकृत आत्मा सबसे बड़ा शत्रु है, पाँच इन्द्रियों के विषयों के साथ क्रोधादि कषाय तथा नोकषाय आदि शत्रु की सेनाएँ हैं । इन पर विजय प्राप्त करना सुभट योद्धाओं की विजय से भी कठिन है । वशीकृत आत्मा के द्वारा इन्हें जीता जाता है । इसमें क्षमा, मृदुता, ऋजुता, निर्लोभता तथा संयम से क्रमशः क्रोध, मान, माया, लोभ तथा इन्द्रियों के विषयों को जीता जाता है । इस तरह वशीकृत आत्मा के द्वारा अवशीकृत आत्मा पर विजय प्राप्त करना है। इसका फल कर्मग्रन्थि का भेदन करके परमसुख की प्राप्ति है । इस विजय के विषय में इन्द्र भी आश्चर्य प्रकट करता है । अतः यही सच्ची और सबसे बड़ी विजय है।' इस विवेचन से स्पष्ट है कि क्षत्रिय का मुख्य कार्य युद्ध करना एवं प्रजा की रक्षा करना था । ३ε६ ] वैश्य - ये प्राय: प्रचुर धन-सम्पत्ति के स्वामी होते थे तथा देशविदेश में व्यापार किया करते थे । व्यापार करने के कारण इन्हें 'वणिक्' कहा जाता था ।२ पालित वणिक् नाव द्वारा समुद्र के पार पिहुण्ड नगर को व्यापार करने जाता है और वहाँ पर किसी वणिक् १. अप्पा चेव दमेयव्वो अप्पा हु खलु दुद्दमो || अप्पदंती सुही होइ अस्सिं लोए परत्य य ।। - उ० १.१५. अजिए सत्तू कसाया इंदियाणि य ।। - उ० २३.३८. तथा देखिए - उ० ६.२०-२२, ३४-३६, ५६-५८ २३.३६; १.१६; २६.१७, ४६-४६, ६२-७० पृ० २६२, पा० टि०२; पृ०२८६, पा० टि० ४. Jain Education International २. चंपाए पालिए नाम सावए आसि वाणिए । - उ० २१.१. For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004252
Book TitleUttaradhyayan Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherSohanlal Jaindharm Pracharak Samiti
Publication Year1970
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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