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प्रकरण ४ : सामान्य साध्वाचार
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व्युत्सर्जन के योग्य ( स्थण्डिल ) भूमि-त्याज्य पदार्थों के फेंकने योग्य स्थान इस प्रकार का होना चाहिये : १. आवागमन से सर्वथा शन्य (जहाँ पर न तो कोई आ रहा हो और न कोई दूर से देख रहा हो-अनापातअसंलोक । इसके अतिरिक्त ऐसा भी न हो कि कोई आता तो न हो परन्तु दूर से देख रहा हो-अनापात संलोक; या आ तो रहा हो परन्तु देखता न हो--आपात असंलोक; या आता भी हो और देख भी रहा हो-आपात संलोक । इस तरह आवागमन से सर्वथा शून्य स्थान होना चाहिए), २. जहाँ क्षद्र जीवादि की भी हिंसा संभव न हो, ३. सम हो ( ऊँचीनीची न हो ), ४. तृणादि से आच्छादित न हो, ५. अधिक समय पहले अचित्त किए गए स्थान में जीवादि की उत्पत्ति संभव होने से जिस स्थान को कुछ समय पूर्व ही अचित्त किया गया हो, ६. विस्तृत हो, ७. बहुत नीचे तक अचित्त हो, ८ ग्रामादि के समीप न हो, ६. छिद्ररहित हो और १०. त्रस जीव एवं अङ्करोत्पादक शाल्यादि के बीज से रहित हो।। ___ इस तरह ये पाँचों प्रकार की समितियां साधु को सावधानीपूर्वक सदाचार में प्रवृत्ति करने की शिक्षा देती हैं। जीवों की हिंसा न हो और अहिंसादि व्रतों का ठीक से पालन किया जा सके इसके लिये ही इन समितियों का और इसके साथ ही गुप्तियों का प्रतिपादन किया गया है । ग्रन्थ में समितिवाले साधु का लक्षण बतलाते हए कहा है कि जो किसी के प्राणों का विघात नहीं करता है तथा उनकी रक्षा करने में तत्पर रहता है वह समितिवाला कहलाता है। उसके पास पाप कर्म उसी प्रकार नहीं ठहरते हैं जिस प्रकार उच्चस्थान में जल नहीं ठहरता १. अणावायमसंलोए अणावाए चेव होइ संलोए ।
आवायमसंलोए आवाए चेव संलोए । अणावायमसंलोए परस्सणुवघाइए । समे अज्झसिरे यावि अचिरकालकयम्मि य ॥ विच्छिण्णे दूरमोगाढे नासन्ने बिलवज्जिए। तसपाणबीयरहिए उच्चाराईणि वोसिरे ॥
-उ० २४.१६-१८.
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