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________________ प्रकरण ५ : विशेष साध्वाचार [३४३ प्रशस्त-योग को प्राप्त करता है। इसके बाद प्रशस्त-योगवाला साध अनन्तघाती कर्म-पर्यायों को नष्ट कर देता है।' ख. प्रतिक्रमण – 'प्रमाद से जो दोष हुआ हो वह मिथ्या हो' (मिच्छा मि दुक्कडं) इस तरह की मानसिक प्रतिक्रिया प्रकट करना प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त तप है। साधु इस प्रायश्चित्त को प्रतिदिन करता है। अतः इसे छः आवश्यकों में गिनाया गया है। ___ ग. तदुभय- आलोचना और प्रतिक्रमण इन दोनों प्रकार के प्रायश्चित्तों के करने से जिस दोष की शुद्धि हो उसे 'तदुभयाह' दोष कहते हैं तथा इस दोष की शूद्धि करना तदुभय प्रायश्चित्त है। घ. विवेक-यदि अज्ञान से सदोष आहारादि लिया हो तो बाद में ज्ञान हो जाने पर उसका त्याग कर देना विवेक प्रायश्चित्त है। ___ ङ. व्युत्सर्ग-शरीर के सभी प्रकार के हलन-चलनरूप व्यापारों को त्यागकर एकाग्रतापूर्वक स्थिर होना अर्थात् 'कायोत्सर्ग' करना व्यूत्सर्ग प्रायश्चित्त है। यह कायोत्सर्गरूप व्यूत्सर्ग छः आवश्यकों में भी गिनाया गया है तथा आभ्यन्तर तप के छः भेदों में एक स्वतन्त्र तप भी है। च. तप - जिस दोष की शुद्धि अनशन आदि तप के करने से हो उसे 'तपार्ह' दोष कहते हैं तथा उसकी शुद्धि के लिए अनशन आदि तप करना तप प्रायश्चित्त है। छ. छेद साधु की दीक्षा के समय को घटा (छेद) देना छेद प्रायश्चित्त है। इससे उस साधु को जिसको दीक्षा का समय घटा दिया जाता है उन साधुओं को भी नमस्कार आदि करना पड़ता है जिनकी दीक्षा की अवधि उससे ज्यादा होती है, भले ही वे उसे छेद प्रायश्चित्त के पूर्व नमस्कार आदि क्यों न करते रहे हों। १. उ० २६ ७. २. मानलो किसी साधु को दीक्षा लिए चार वर्ष पूरे हो गए हैं। किसी अपराध के कारण एक दिन गुरु उसकी दीक्षा के समय को एक वर्ष छेद देते हैं। इसके परिणामस्वरूप अब उसे उन सभी साधुओं की वैयावृत्य आदि करनी पड़ती है जिनकी दीक्षा का समय तीन वर्ष से कुछ अधिक है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004252
Book TitleUttaradhyayan Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherSohanlal Jaindharm Pracharak Samiti
Publication Year1970
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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