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३४४ ] उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन ___ज. मूल-जिस दोष के प्रायश्चित्त में सम्पूर्ण (मूलसहित) दीक्षा के समय को छेद दिया जाए उसे मूल प्रायश्चित्त कहते हैं। इसके फलस्वरूप उसे पुनः दीक्षा लेनी पड़ती है। तत्त्वार्थसूत्र में इसे उपस्थापना प्रायश्चित्त तप कहा है।' ___ झ. अनवस्थापना-जिस दोष के प्रायश्चित्तस्वरूप साधु सम्पूर्ण दीक्षा के छेद दिए जाने से पन: दीक्षा लेने के योग्य तब तक न हो जब तक कि उस दोष के प्रायश्चित्तस्वरूप गुरु के द्वारा बतलाया गया अनशन आदि तप न कर लिया जाए।
अ. पाराञ्चिक -- सबसे बड़े अपराध के लिए किया जानेवाला सर्वाधिक कठोर प्रायश्चित्त विशेष । ___ उपर्युक्त १० प्रकार के प्रायश्चित्तों में यदि प्रतिक्रमण के बाद आलोचना प्रायश्चित्त को रखा जाए तो ये प्रायश्चित्त क्रमशः उत्तरोत्तर गुरुतर अपराध (दोष) की शुद्धि में निमित्त बनेंगे। प्रतिक्रमण सामान्य दोष के लिए किया जाता है तथा आलोचना उससे गुरुतर अपराध के लिए की जाती है। इसीलिए प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त में गुरु के समीप दोषों को कहे बिना ही स्वतः पश्चात्तापरूप मानसिक-प्रतिक्रिया प्रकट की जाती है, जबकि आलोचना में गुरु के समक्ष दोषों को कहना पड़ता है। जीतकल्प सूत्र में इनका विस्तृत वर्णन मिलता है। तत्त्वार्थसूत्र में इस तप के ह भेद गिनाए हैं जिनमें अनवस्थापन और पाराञ्चिक ये दो भेद नहीं हैं। इसके अतिरिक्त वहाँ 'परिहार' (कुछ समय के लिए संघ से निकाल देना) नामक एक अन्य प्रायश्चित्त गिनाया गया है। २. विनय तप :
गुरु के प्रति नम्रता का व्यवहार करना विनय तप है। यह विनम्रता पाँच प्रकार से प्रशित की जा सकती हैः १. अभ्युत्थान १. आलोचनाप्रतिक्रमगतदुभयविवेकव्युत्सर्गतपश्छेदपरिहारोपस्थापनाः ।
-त० सू० ६.२२. २. वही
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