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आभ्यन्तर तप :
अन्तः शुद्धि से विशेष सम्बन्ध रखने के कारण प्रायश्चित्त आदि तप आभ्यन्तर तप कहलाते हैं । इसका यह तात्पर्य नहीं है कि इनका बाह्य शारीरिक क्रिया से कोई सम्बन्ध नहीं है अपितु बाह्य और आभ्यन्तररूप तयों का विभाजन प्रधानता और अप्रधानता की दृष्टि से किया गया है | आभ्यन्तर छः तपों के स्वरूपादि इस प्रकार
१. प्रायश्चित्त तप :
आचार में दोष लग जाने पर उस दोष की शुद्धि के लिए किया गया दण्डरूप पश्चात्ताप प्रायश्चित्त तप है । यह ग्रन्थ में १० प्रकार का बतलाया गया है परन्तु वहां पर उनके नाम नहीं गिनाए हैं ।" टीकाओं में उनके नामादि इस प्रकार गिनाए गए हैं :
उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन
क. आलोचना - दोष को गुरु के समक्ष स्पष्ट कह देने मात्र से जिस दोष की शुद्धि हो जाती है उसे 'आलोचनार्ह' दोष कहते हैं तथा उस दोष को बिना छुपाए गुरु के समक्ष स्पष्ट शब्दों में कहना आलोचना प्रायश्चित्त है । आलोचना से जीव अनन्त-संसार को बढ़ानेवाले तथा मुक्ति में विघ्नरूप माया, निदान ( पुण्यकर्म की फलाभिलाषा) और मिथ्यादर्शनरूप शल्यों को दूर करके सरलता को प्राप्त करता है, फिर स्त्री वेद और नपुंसक वेद (मोहनीय नोकषाय कर्म ) का बन्ध न करके पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा कर देता है । गर्हा (आत्मगर्हा) भी आलोचनारूप ही है । इससे जीव आत्मानम्रता ( अपुरस्कार) को प्राप्त करता है, फिर अप्रशस्तयोग (मन, वचन व काय की अशुभ प्रवृत्ति) से विरक्त होकर
१. आलोयणारिहाईयं पायच्छित्तं तु दसविहं ।
भिक्खू वहई सम्मं पायच्छित्तं तमाहियं ॥
२. उ० २६.५.
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- उ० ३०.३१.
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