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________________ प्रकरण ५ : विशेष साध्वाचार [ ३४१ बाह्य तप के भेदों को गिनाते समय इस तप का नाम संलीनता दिया गया है परन्तु इसका लक्षण करते समय इसे विविक्तशयनासन शब्द से कहा गया है। वास्तव में विविक्तशयनासन संलीनता का एक भेदविशेष है।' इसका फल बतलाते हुए ग्रन्थ में लिखा है कि विविक्तशयनासन से जीव चारित्र की गुप्ति को करता है और फिर एषणीय आहारवान्, दढ़चारित्रवान्, एकान्तप्रिय और मोक्षाभिमुख होकर आठों प्रकार के कर्मबन्धनों को तोड़ देता है। उपर्युक्त बाह्य तप के भेदों में प्रथम चार तप आहार से सम्बन्धित हैं तथा अन्तिम दो तप क्रमशः कठोर शारीरिक आसन विशेष एवं एकान्तवास से सम्बन्धित हैं। यदि साध की अपेक्षा से इन बाह्य तपों के क्रमिक विकास पर विचार किया जाए तो इनका क्रम इस प्रकार उचित होगा: १ भिक्षाचर्या, २. ऊनोदरी, ३. रसपरित्याग, ४. अनशन, ५. संलीनता एवं ६ कायक्लेश । प्रत्येक साध भिक्षाचर्या का सामान्यरूप से पालन करता ही है। अतः क्रमिक-विकास की दृष्टि से इसका प्रथम स्थान होना चाहिए । इसके बाद कम खानेरूप ऊनोदरी, फिर सरस पदार्थों के त्यागरूप रस-परित्याग और फिर सब प्रकार के आहार-पान के त्यागरूप अनशन तप करने का अभ्यास संभव है। कायक्लेश तप में एकान्तस्थान का सेवन आ ही जाता है तथा साधु के लिए हमेशा एकान्तसेवन आवश्यक भी है, जबकि कायक्लेश तप उतना आवश्यक नहीं है । अत: प्रतिसंलीनता के बाद कायक्लेश तप का अभ्यास संभव है। अपेक्षा-भेद होने पर इस क्रम में अंतर भी आ सकता है। तत्त्वार्थसूत्र में भी यद्यपि उपर्युक्त क्रम नहीं है फिर भी वहां पर कायक्लेश के पूर्व संलीनता ( विविक्तशयनासन ) को गिनाया गया है । १. वही, टीकाएँ। २. उ० २६.३१. ३. अनशनावौदर्यवृत्तिपरिसंख्यान रसपरित्यागविविक्तशय्यासनकायक्लेशा ___ बाह्य तपः। - त० सू० ६.१६. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004252
Book TitleUttaradhyayan Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherSohanlal Jaindharm Pracharak Samiti
Publication Year1970
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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