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प्रकरण ४ : सामान्य साध्वाचार
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रखना । अतः साधु के पास जो भी रजोहरण आदि उपकरण होते हैं उन्हें आखों से अच्छी तरह देखकर ( प्रतिलेखना करके ) तथा प्रमार्जन ( सफाई ) करके उठाना एवं रखना 'आदान - निक्षेप' समिति है ।' अर्थात् पात्रादि उपकरणों को उठाते एवं रखते समय अच्छी प्रकार देख-भाल ( प्रतिलेखना ) कर प्रमार्जन कर लेना चाहिए जिससे जीवों की हिंसा न हो। इस तरह इस समिति का सम्यक् - रूप से पालन करने के लिये प्रतिलेखना ( निरीक्षण) एवं प्रमार्जना ( धूलि आदि साफ करना ) को समझ लेना आवश्यक है ।
प्रतिलेखना एवं प्रमार्जना - प्रतिलेखना का अर्थ है-चक्षु से देखना और प्रमार्जना का अर्थ है - साफ करना । ये दोनों क्रियाएँ साधु को प्रातः एवं सायं रोज करनी पड़ती हैं । इसके अतिरिक्त पात्र आदि उपकरणों के उठाते एवं रखते समय भी इन्हें करना पड़ता है । इनके करने से षट्काय के जीवों की रक्षा होती
पदार्थ को निकालकर उसी पात्र से देने पर ), ६. दायक ( शराबी, गर्भिणी आदि अनधिकारी के द्वारा देने पर ), ७. उन्मिश्र ( शुद्ध और अशुद्ध से मिश्रित ), ८. अपरिणत ( शाकादि के पूर्णरूप से पके हुए न होने पर ), ६. लिप्त (दूध, दही आदि से लिप्त पात्र या हाथ से देने पर ) और १० छदित ( जिसके अन्नकण नीचे गिर रहे हों ) ।
ग. परिभोषणा (ग्रासंषणा ) - सम्बन्धी ४ दोष – इनका निमित्त साधु ही होता है । जैसे : १. संयोजना ( सरसता की लोलुपता से दूध, शक्कर आदि को परस्पर मिलाकर खाना ), २. अप्रमाण ( प्रमाण से अधिक खाना ), ३. अंगार ( सरस आहार होने पर दाता की प्रशंसा करते हुए तथा नीरस होने पर निन्दा करते हुए खाना ) और ४. अकारण ( बलवृद्धि आदि की भावना से खाना ) ।
- देखिए - वही, टीकाएँ; श्रमणसूत्र, पृ० ४३१-४३५.
१. चक्खुसा पडिले हित्ता पमज्जेज्ज जयं जई ।
आइए निक्खिवेज्जा दुहओवि समिए सया ||
—उ० २४.१४.
तथा देखिए - उ० २४.१३; २०.४०; १२.२.
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